Thursday, December 31, 2009

अलविदा

उसने कहा
मैं जा रही हूं
हमेशा-हमेशा के लिए
तुमसे दूर
बस, जो बचे हैं पल
वो गुजार लो
हंसी-खुशी
मेरे संग
क्या-खोया
क्या-पाया
इसका हिसाब
लगा लेना
कल
अभी तो हूं मैं तुम्हारे
और तुम मेरे साथ
सुनो,
जब मैं चली जाऊंगी
तुम उदास मत होना
रोना भी मत
न घंटों बैठ कर
डूबते सूरज को निहारने में
अपना वक्त बरबाद करना
अगली सुबह
तुम उठना
एक नई ऊर्जा के साथ
एक नये कल की शुरुआत के लिए
अच्छा अलविदा
मेरे हमदम
जाती हुई
2009 की आखिरी शाम
का आखिरी सलाम।
'हैप्पी न्यू इयरÓ

Tuesday, December 29, 2009

यह कैसी मस्ती?

यह कैसी मस्ती है, जिसमें घरवालों की भावनाओं का, अपने शरीर को होने वाली क्षति का कोई स्थान नहीं है।
मैं पुलिया के नीचे घुसने के लिए मोड़ पर मुड़ा ही था कि सामने से स्कूटी पर तेज गति से आ रही दो युवतियां मेरी बाइक से भिड़ते-भिड़ते बचीं। मेरा जी धक से रह गया। मेरी हड़बड़ाहट पर उनकी हंसी छूट गई। मुंह से हुरर्र करती हुई वो फुरर्र हो गईं। वो तो अपनी राह चली गईं लेकिन मुझे बहुत देर लगी खुद को संयत करने में। अभी-अभी बेटे को डेयरी से दूध दिलाकर घर के बाहर छोड़कर आया था। एक दम से पूरा परिवार आंखों के आगे घूम गया। मन के किसी कोने से सवाल उठा, मुझे कुछ हो जाता तो। सोचों के साथ-साथ मेरी बाइक भी बड़ी जा रही थी। मुझे पुलिया के ऊपर से होकर जाना था। घूमकर जब पुलिया पर चढऩे लगा तो दूसरी तरफ लगी भीड़ पर नजर गई। शायद कोई दुर्घटना हुई थी। अपना इलाका था, सो बाइक साइड में रोकी और वस्तुस्थिति जानने को उतरा। देखा एक आदमी स्कूटी उठा रहा था, और एक युवती का चेहरा खून से लथपथ और एक उसी की हमउम्र उसे संभाल रही थी। लड़की पलटी तो मुंख खुला का खुला रह गया। ये तो वही युवतियां थीं जो मुझसे टकराती-टकराती बचीं थी। बुझे मन से मैंने बाइक उठाई और चल दिया अपनी राह। मन में यही उथल-पुथल मची थी। यह कैसी मस्ती है, जिसमें घरवालों की भावनाओं का, अपने शरीर को होने वाली क्षति का कोई स्थान नहीं है।

Thursday, November 26, 2009

नई भोर आवाज दे रही है


Friday, November 6, 2009

सोचता हूँ

सोचता हूँ
क्यों न तुम्हारा नाम
खुसबू रख दूं,
ताकि तुम्हें पुकार सकूं
बेहिचक
कहीं भी, कभी भी
सबके बीच में.
मैं कहूँगा
खुसबू आ रही है.
सब कहेंगे
हाँ, आ रही है.
मेरा मतलब
तुमसे होगा
और उनका मतलब............

Sunday, May 17, 2009

यूँ भी होता है

कई दिनों से कुछ नहीं लिख पाया इसलिए अपनी एक पुराणी लघुकथा पोस्ट कर रहा हूँ. कई साथी इसे पढ़ चुके होंगे, लेकिन यह उन्हें भी नया सा अनुभव देगी, क्योंकि यह रोज मर्रा की जिंदगी से जुडी हुयी है.
गोद मैं बच्चा लिए व हाथ मैं झोला लटकाए एक ग्रामीण महिला बस मैं चडी, सीट खाली नही देख एक दम से वह निराश हो गयी, फिर भी जैसा कि बस मैं चड़ने वाला हर यात्री सोचता है कि शायद किसी सीट पर अटकने कीजगह मिल जाए, वह भी पीछे की और चली, तभी उसकी नजर एक सीट पर पड़ी , उस पर बस एक युवक बेठा था, आंखों मैं संतोष की चमक आ गयी, पास जाने पर जब उस पर कोई कपडा या कुछ सामान नही दिखायी दिया तो उसने धम्म से शरीर को छोड़ दिया सीट पर,
अरे रे कहाँ बेठ रही हो, यहाँ सवारी आएगी,
आंखों मैं उभरी चमक घुप्प से गायब हो गयी , आगे और सीट देखने की हिम्मत उसमें नही रही और वह वहीं सीटों के बीच गैलरी मैं ही बेठ गयी, इसके बाद उस खालीसीट को देख कर कईं आंखों मैं चमक आती रही और बुझती रही,तभी एक युवती बस मैं चडी , अन्य लोगों को खड़ा देख उसने समझ लिया कि वह सीट खाली नही है, कोई आएगा, नीचे गया होगा, टिकेट या फिर कूछ लेने , और वह भी खड़ी हो गयी महिला के पास,
बेठ जाइये न, यहाँ कोई नही आएगा,
इस आवाज पर युवती ने मुड़कर देखा तो युवक उससे ही मुखातिब था,उसने आश्चर्य से पूछा कोई नही आएगा,
जी नही, युवक उसी मुस्कान के साथ बोला, इस पर युवती मुडी और नीचे बेठी उस बच्चे वाली महिला को वहां बेठा दिया,अब युवक का चेहरा देखने लायक था, वह युवती को खा जाने वाली नजरों से देख रहा था,
शिवराज गूजर

Thursday, April 23, 2009

इंटरव्यू

अजी सुनते हो
घर में घुसा ही था कि श्रीमती जी बोलीं
मुन्ना चलने लग गया है.
हाँ, फिर ?
फिर क्या ?
दाखिला नहीं कराना है स्कूल में
मैं चौंका,
यह नन्ही जान
खुली नहीं अभी ढंग से जबान
क्या पढेगा ?
अजी अभी पढाना किसको है.
यह तो रिहर्सल है, स्कूल जाने की
और फिर यहाँ यह रोता भी है
वहाँ मेडमें होंगी,
वो खिलाएँगी इसे
टोफियाँ देंगी.
हमें भी कुछ देर सुकून तो मिलेगा
मगर भागवान...
बात पूरी होने से पहले बोल पड़ी वो
मगर -वगर कुछ नहीं
मैं फार्म ले आई हूँ प्रवेश का
कल इंटरव्यू है अपना
तुम्हें भी चलना है.
प्रवेश बच्चे का, इंटरव्यू अपना ?
जी हाँ. यह प्रीव्यू है पेरेंट्स का
बच्चा तो ढंग से बोलता भी नहीं अभी
क्या पूछेंगे इससे
तो हमसे क्या पूछेंगे ?
यही कि, क्या हम समय दे पाएंगे
इसे घर पर
रोज दो चार घंटे पढाने का.

Tuesday, April 21, 2009

मैं कोनसा भाषण सुनने जा रही हूँ......

पानी के छींटे लगते ही मैं हडबडा कर उठ बैठा. इससे पहले कि गुस्से में मेरा तीसरा नेत्र खुलता दोनों नेत्रों के सामने श्रीमतीजी का चेहरा आ गया. बस इतना काफी था, तीसरा नेत्र उनींदा ही रह गया। एक हाथ मैं पानी का लोटा और दूसरा हाथ कमर पर रखे घर की महारानी खड़ी थी। नींद तो एक झटके में भीगी बिल्ली बन गयी। आँखें बिना खोले ही खुल गई. इससे पहले की में कुछ बोल पाता, उसकी सवाई माधोपुर के अमरूदों की सी मिठास लिए आवाज मेरे कानो में पड़ी -

'आप नहीं उठ रहे थे न, इसलिए पानी डालना पड़ा.

उसकी नरमी मेरी गर्मी बड़ा गई.

'आज सुबह -सुबह ऐसा कोनसा पहाड़ टूट पड़ा कि मेरी नींद ख़राब कर दी.

अचानक मेरा ध्यान श्रीमतीजी के सार श्रींगार पर गया। बाप रे क़यामत डा रही थी. दिमाग की बत्ती बिना स्विच दबाये ही जल गयी. खटका तो उसकी मीठी आवाज सुनकर ही हो गया था.

'और ये सज-धज कर कहाँ जाने की तैयारी है।'

' वो नेताजी की सभा है न, बालाजी के चौक में। मोहल्ले की सभी ओरतें जा रही हैं.

मेरा दिमाग घनचक्कर हो कर रह गया। मुझे हंसी भी आयी.

'ये तुम्हें भाषण सुनने का शौक कबसे चर्रा गया'

'अजी भाषण किसे सुनना है। हम तो सलमान खान को देखने जा रहे हैं.'

अभी में इस पर कोई प्रतिक्रिया देता इससे पहले ही पड़ोस वाले शर्माजी की बबली की तेजी के साथ सीन में एंट्री हुयी। बिना पोजीसन लिए ही उसने डाइलोग बोल दिया.

'जल्दी आइये आंटी जी सब आंटियां ऑटो में बात चुकी हैं। आपका ही इन्तेजार है।'

एक ही सांस में सारी बात कहने के साथ ही वो एग्जिट हो गई और दृश्य में रह गए हम -दोनों.

मैंने कुछ सोचते हुए श्रीमती जी से कहा

'देखो हम उसे वोट भी नहीं दे रहे हैं फिर तुम क्यों जा रही हो उसकी सभा में.

'वोट तो आप कहोगे वहां ही देंगे, और फिर में कोनसा उसका भाषण सुनने जा रही हूँ। में तो सलमान खान को देखने जा रही हूँ.

उसकी आंसर की ने मुझे चुप कर दिया. मेरी चुप्पी उसके लिए हाँ थी. वो पलती और झटके से दरवाजे से बहार निकल गई. में मुह खोले और दायां हाथ आगे बढाये कुछ बोलने के अंदाज में फ्रीज़ हो गया.

Friday, April 3, 2009

पापा-वापा छोडो

'पिंटू बिलकुल अपने दादा पर गया है। अभी छठा साल भी पार नहीं किया है और कितना बड़ा दिखने लगा है. रंगत में तो अपनी मम्मी पर गया है, गोरा चिट्टा.' कुछ दिनों पहले तक ये घरों में चलने वाली आम बातें थीं, जिनके आधार पर संतान की तुलना अपनी पीढी के आनुवंशिक गुणों से की जाती थी. अब जमाना बदल गया है. ये बातें पुरानी हो चली हैं. अब संतान माँ-बाप पर नहीं, बाजार पर जाती है. उसमें आनुवंशिक नहीं आरोपित गुण आते हैं. टीवी पर इन दिनों एक विज्ञापन आता है, आपने भी देखा होगा. स्क्रीन पर एक महिला अपनी सहेलियों को त्रोफियों से भरी आलमारी दिखाते हुए अपने बच्चे की इंटेलीजेंसी का बखान कर रही होती हैं. तभी उसका लाडला एक और ट्राफी लिए हुए घर में प्रवेश करता है. इस पर वह महिला थोडा इतर कर कहती है,
' लगता है ट्रोफियों के लिए अब तो एक अलग से रूम ही बनवाना पड़ेगा।'
यह सुनकर उसकी सहेलियों में से एक बोलती है,
'लगता है यह लड़का अपने पापा पर गया है।'
तभी दूसरी सहेली उसकी बात काटते हुए कहती है,
' पापा-वापा छोडो, इनके यहाँ डिस्नेट का इंटरनेट कनेक्शन है। '
जी हाँ अब इंटरनेट का जमाना है. अगर आप जिंदगी भर भी डपोर शंख रहे तो घबराइये मत कि आपका बच्चा भी आप पर चला गया तो क्या होगा? अब यह चिंता-विनता छोडो और इंटरनेट से नाता जोडो. हो सकता है आप हेल्थ में कमजोर हों और डर रहे हों कि आपकी संतान भी आप जैसी हुई तो ? अब नो टेंसन. बाजार हाजिर है. हेल्थसन, लोह्बल या फिर और कोई कप्सूल दीजिये, आपका लाडला डब्लू-डब्लू ऍफ़ के पहलवानों को मात करने लगेगा. ज्यादा दे दो तो सूमो से सीधा मुकाबला है. अंदरूनी या दिमागी तौर पर कमजोर है तो कईं विकल्प हैं, बोर्नवीटा, कोम्प्लान वगैरा -वगैरा. फेहरिस्त लम्बी है. बस उम्दा पर टिक लगाइए और बना दीजिये अपनी संतान को ब्रिलियंट. मुझे डार्विन का आनुवंशिकवाद फेल होता नजर आ रहा है. आप छोटे हैं तो क्या हुआ, सारी आनुवंशिक गणित को धता बताते हुए अपने बच्चे को जिराफ कि गर्दन जितना या आदमियों के हिसाब से देखें तो कौन बनेगा करोड़पति के अमिताभ बच्चन जितना लम्बा कर सकते हैं, लॉन्ग लुक से. आप काले हैं तो नो प्रोब्लम. इस फिल्ड में आपके पास ऑप्सन ही ऑप्सन हैं. सनक्रीमें और माउथवाश. गोरापन लाने वाली हल्दी और चन्दन के गुण समाये बहुत सी आयुर्वेदिक क्रीमें, मसलन फेयर एंड लवली, पोंड्स, नेचुरली फेयर, बोरो प्लस, वीको टर्मरिक वगैरा-वगैरा. चुनने में कन्फ्यूज हो रहे हैं? दिमाग काम नहीं कर रहा है. इसका भी सॉल्यूशन है. नवरतन का तेल सर में लगाइए, दिमाग को ठंडा-ठंडा, कूल-कूल कीजिये और बना लीजिये काले पेरेंट्स कि संतान को गोरा. मेरिट में आने वाले बच्चे का अखबार में फोटो देखना. दखी है मा-बाप के साथ. लिखा देखा है कभी-थेंक्यू मम्मी-पापा. धन्यवाद इसलिए नहीं कहा आप मुझे पुरातन पंथी मान बैठेंगे. टोपर का फोटो होता है किसी उत्पाद के साथ और नीचे लिखा होता है थेंक्यू फलां उत्पाद, फलां पासबुक या फिर और कुछ. अब तो वैज्ञानिक भी परखनली में शिशु पैदा करने का दावा करने लगे हैं. गुणों वाला कोई झंझट ही नहीं. बस आप उन्हें नोट करा दीजिये अपनी संतान की आँखों, बालों का रंग, हेल्थ और लम्बाई और पिये अपनी मनपसंद मॉडल संतान. इसलिए भाई मेरे आनुवंशिकता को भूल जा, पापा-वापा छोड़, उतर जा बाजार में और पा ले अपना/अपनी वंश बेल का/की वारिश.
शिवराज गूजर

Sunday, March 29, 2009

कवि भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाओं की सीडी का लोकार्पण

जयपुर. देश के ख्यातनाम कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती रविवार को झालाना संस्थानिक क्षेत्र स्थित प्रोढ शिक्षा समिति के सभागार में मनाई गई। इस मोके पर पदमश्री पंडित विश्व मोहन भट्ट एवं कवि नंदकिशोर आचार्य ने मिश्र की रचनाओँ की सीडी का लोकार्पण किया. मिश्र की रचनाओं को संगीत उनके बेटे अमिताभ मिश्र ने दिया है. कार्यक्रम के दौरान यह सीडी चलाकर उसका रसास्वादन सभागार में मौजूद संगीत रसिकों को कराया गया.
रचना सुनी, धुन बनाईं और गवा भी दिया
पदमश्री पंडित विश्व मोहन भट्ट ने मिश्र की रचना ' चलो गीत गाओ' को सीडी पर सुना तो उन्हें यह रचना इतनी पसंद आई कि उन्होंने उसी समय अपनी तरफ से इसको संगीतबद्ध किया। यही नहीं सभागार में मौजूद जानी- मानी शास्त्रीय गायिका प्रो. सुमन यादव के साथ उन्होंने इसे गाया भी. इस तरह अपने आप में अनूठी स्वरांजलि कवि भवानी प्रसाद मिश्र को दी गयी.
राजेंद्र बोड़ा ने पढ़कर सुनाया मिश्र का गीत
पत्रकार राजेंद्र बोड़ा ने कवि कवि भवानी प्रसाद मिश्र के गीत 'मै गीत बेचता हूँ' को पढ़कर सुनाया . बोड़ा के गीत को सुनाने का अंदाज़ संगीत रसिकों को बहुत भाया और सबने इसकी मुक्त कंठ से प्रंशंसा की. उन्होंने मिश्र की एक और कविता का भी पाठ किया.
अब तक का सबसे अच्छा कार्यक्रम: नंदिता
कवि नन्द किशोर आचार्य से पिता की स्मृतियाँ सुनकर समारोह में उपस्थित उनकी पुत्री नंदिता भावुक हो गयीं। वो खड़ी हुईं और बस इतना ही कह पाई कि उनके पिता कि स्मृति में हुए अब तक के कार्यक्रमों में यह सबसे अच्छा है. मुझे बहुत अच्छा लगा कि मैं इसका हिस्सा बनी.

Saturday, February 21, 2009

मैं ऐसा क्यों हूँ?

मैं
क्यों बदल लेता हूँ भावना
किसी के प्रति/ एक क्षण मैं
किसी के एक कथन
एक कृत्य पर ।
क्यों भुला देता हूँ
उसके पिछले अच्छे काम को ।
क्यों डांप लेता हूँ
उसकी निष्ठा को
एक भूल पर ।
क्यों नही सोचता
क्यों किया होगा उसने ऐसा
क्या मजबूरी थी उसकी ।
लालच मैं तो किया न होगा
उसने यह कृत्य ।
यही गर करना होता उसे
तो कर चुका होता बहुत पहले ।
मोके क्या कम मिले होंगे उसको
मैंने तो छोड़ रखा था
ख़ुद को उसी के हवाले ।
फिर क्यों हुआ ऐसा ?
क्यों वो मेरा
आज पराया हो गया ।
मुझसे कोई भूल हुई है
या फिर मजबूरी है कोई उसकी ।
मुझे जानना होगा यह
और साथ देना होगा
ऐसे वक्त मैं उसका
ताकि वह हताश न हो
ख़ुद को समझ कर अकेला ।
उबर सके इस हादसे से
फिर आ सके उसी राह
जिस पर उसने पहला कदम रखा था
विश्वाश और प्रेम का ।
शिवराज गूजर

Thursday, February 19, 2009

मेरा शहर

न मात्राओं का गणित है और न ही शब्दों की बंदिश, यह भावनाएं हैं जो चंद लाइनों मैं ब्लॉग पर हैं, इसलिए पड़ते समय भावनाओं को समझें -


यह शहर नही है, अब इंसानों का शहर
हेवानियत हर और यहाँ आती है नजर


बहन-बेटियों की अस्मत घर मैं नही सलामत
कत्लगाह बन गया हैअब तो ख़ुद का ही घर


प्रेमी छूपाते हैं प्रेम को, राखी की आड़ मैं
शेतानियत का ऐसा यहाँ बरपा है कहर


बाकी नही रहा इंसा मैं थोड़ा भी भाईचारा
हवाओं मैं ऐसा घुल गया है साम्प्रदायिकता का जहर


Wednesday, February 18, 2009

ऐसी भी क्या जल्दी है

शास्त्री नगर जाने वाली बस देख रामबाग पर खड़े शर्माजी एकदम से अलर्ट हो गए । बस मैं पैर रखने की भी जगह नही थी, ऐसे मैं जब शर्माजी दोड़ कर बस मैं चड़ने लगे तो कंडेक्टर ने उन्हें रोकने की कोशिश करते हुए कहा,
बिल्कुल भी जगह नही है भाई साहब । पीछे वाली मैं आ जाना ।
जब तक उसकी बात पूरी हुई शर्माजी भीड़ के बीच मैं फंसा चुके थे अपनी बोडी । एक पैर तो हवा मैं लटका हुआ चिल्लाता ही रह गया था मैं कहाँ टिकू ।
ऐसी भी क्या जल्दी है, पीछे वाली बस मैं आ जायें, जब जगह नही है तो जान जोखिम मैं डालने से क्या फायदा,
अगली सवारी को बस मैं चढ़ता देख शर्माजी बडबडा रहे थे ।
शिवराज गूजर

Sunday, February 15, 2009

यूँ भी होता है

गोद मैं बच्चा लिए व हाथ मैं झोला लटकाए एक ग्रामीण महिला बस मैं चडी, सीट खाली नही देख एक दम से वह निराश हो गयी, फिर भी जैसा कि बस मैं चड़ने वाला हर यात्री सोचता है कि शायद किसी सीट पर अटकने कीजगह मिल जाए, वह भी पीछे की और चली, तभी उसकी नजर एक सीट पर पड़ी , उस पर बस एक युवक बेठा था, आंखों मैं संतोष की चमक आ गयी, पास जाने पर जब उस पर कोई कपडा या कुछ सामान नही दिखायी दिया तो उसने धम्म से शरीर को छोड़ दिया सीट पर,
अरे रे कहाँ बेठ रही हो, यहाँ सवारी आएगी,
आंखों मैं उभरी चमक घुप्प से गायब हो गयी , आगे और सीट देखने की हिम्मत उसमें नही रही और वह वहीं सीटों के बीच गैलरी मैं ही बेठ गयी, इसके बाद उस खालीसीट को देख कर कईं आंखों मैं चमक आती रही और बुझती रही,
तभी एक युवती बस मैं चडी , अन्य लोगों को खड़ा देख उसने समझ लिया कि वह सीट खाली नही है, कोई आएगा, नीचे गया होगा, टिकेट या फिर कूछ लेने , और वह भी खड़ी हो गयी महिला के पास,
बेठ जाइये न, यहाँ कोई नही आएगा, इस आवाज पर युवती ने मुड़कर देखा तो युवक उससे ही मुखातिब था,
उसने आश्चर्य से पूछा कोई नही आएगा,
जी नही, युवक उसी मुस्कान के साथ बोला,
इस पर युवती मुडी और नीचे बेठी उस बच्चे वाली महिला को वहां बेठा दिया,
अब युवक का चेहरा देखने लायक था, वह युवती को खा जाने वाली नजरों से देख रहा था,
शिवराज गूजर

Thursday, February 12, 2009

अब तो शिकवा न करना मुझसे

पैदा होते ही
लग जाता है ठप्पा
जिस पर मनहूस का
भेदभाव बरता जाता है
जिसकी परवरिश मैं
हर पल
हर जरूरत के लिए
मारना पड़ता है मन को
बदन पर चुभती अनगिनत आँखें
भूखे गिद्ध की तरह
अपनों की परायों की
हर कदम पर बंदिशें
उम्र के फेलाव के साथ
बढता, बंदिशों का सिलसिला
इसी क्रम मैं
बाँध दिया जाता है
निरीह पशु की भांति
किसी अनजान दडबे के खूंटे से
कहते हुए की
अब यही तुम्हारी दुनिया है
निर्विरोध अंगीकार कर इस थोप को
डाल लेती है ख़ुद को
इस अनजान माहोल मैं
इस आशा के साथ
की शायद
इस हमसफ़र से ही मिल जाए
स्नेह थोड़ा
मगर
टूट जाता है, यह भरम भी
कुछ ही दिनों के चक्र मैं
जब पूरी नही होती मांगें उनकी
तो उडेल दी जाती है केरोसिन की पीपी
और दिखा दी जाती है दियासलाई
पल मैं जीती -जागती मूरत
बदल जाती है राख मैं
यह कहते, देख बापू
नही लगाया बट्टा तेरी शान को
तूने कहा था, वहाँ से तेरी अर्थी उठे
देख लो, उठ रही है
अब तो शिकवा न करना मुझसे
निभा दिया मैंने तेरा वचन
पैदा होने से लेकर मरने तक

शिवराज गूजर

Monday, February 9, 2009

गीत

गाँव से मेरा ख़त आया है
पढके यार सुनना तुम
कैसे है घरवाले मेरे
सबका हाल बताना तुम

माँ -बापूजी लिखते हैं
कैसे हो लाल हमारे तुम
दूर हो हमसे तो क्या बेटे
यादों मैं पास हमारे हो तुम

हम तो सब खुस हैं यहाँ पर
लिखना हाल तुम्हारा तुम
गाँव से .............

बहना लिखती है भइया मेरे
क्या तुम हमको भूल गए
घर, आँगन, गलियां, चौबारे
क्या तुम सबको भूल गए

शहर मैं जाकर भइया क्या
भूल गए हो प्यार हमारा तुम
गाँव से .................

भाई तुम्हारा छोटा लिखता है
भइया क्यों तड़पाते हो
याद तुम्हारी आती है
फिर क्यों नही तुम आते हो

अबके ख़त मैं लिखना भइया
कब आ रहे हो घर पर तुम
गाँव से ...............

शिवराज गूजर

Sunday, February 8, 2009

उम्मीद और सपने

दो चीजें
पीछा करती हैं हमेशा
इंसान का
उम्मीद और सपने
सपने होते हैं उसके अपने
उमीदें होती हैं उससे दूसरों को
दम तोड़ देते हैं सपने
हमेशा उमीदों के आगे
क्योंकि
वक़्त लगता है
सपनों के पूरे होने मैं
जबकि
उमीदें साथ होती हैं
हरपल
जो अहसास कराती हैं
उसे अपने होने का
किसी से बंधे होने का
पसोपेश मैं पड़ गया है मन
इस दोराहे पर आकर
एक तरफ़ मेरे सपने हैं
दूसरी और हैं उनकी उमीदें
सोचता हूँ
सपने तो मेरे अकेले के हैं
उमीदें मुझसे कितनो को हैं
माँ -बापू को
क्योंकि बेटा हूँ उनका
पाला - पोसा है मुझे
यह सोच कर
सहारा बनूँगा बुडापे मैं
उमीदें हैं, बीवी - बचों को
क्योंकि
पालनहार हूँ मैं उनका
तो फिर क्या अहमियत है
मेरे सपनों की
उनकी उमीदों के आगे
पर
मुझे भी तो वक़्त चाहिए
उनकी उमीदों पर खरा उतरने के लिए
क्या मैं कर सकता हूँ उनसे
कुछ और समय की
उम्मीद
शिवराज गूजर




Saturday, February 7, 2009

चार लाइने

बेखयाली में ही सही
आप कुछ कदम तो चले
शायद अपने बीच के
फासले यू ही मिट जायें

शिवराज गूजर

Thursday, February 5, 2009

दुनियादारी

ना थारी छे, ना म्हारी छे
या दुनिया भाया दारी छे
गरज पड्यां सूं गुड बण ज्या
काम निकलता ही खारी छे
या दुनिया......

आंटी मैं पीसा हो तो
जग बण जावे भाएलो
लक्ष्मीजी जद घर छोड़े
कुण नाती, कुणकी यारी छे
या दुनिया......

पूत कमाऊ हो घर मैं तो
सबने लगे प्यारो सो
बेरुजगार घूमतो बेटो
लागे सबने बेरी छे
या दुनिया......

शिवराज गूजर

Tuesday, February 3, 2009

वाह प्रीतो

अभिनेत्री प्रीटी जिंटा ने अपने जन्मदिन पर ऋषिकेश के मदर मिरेकल सकूल की ३४ लडकियॊं कॊ गॊद लिया है उनका यह कदम इसलिए भी महत्वपूरण हॊ गया है कि ये सभी लडिकयां अनाथ हैं समाज के लिए किया गया उनका यह यॊगदान अनुकरणीय है उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरे अभिनेता व अभिनेत्रियाँ भी जन्मदिनकी पार्टियों में अनाप-शनाप खर्च करने के बजाय इस तरह के सामाजिक यॊगदान का हिससा बनेंगे प्रीटी जिंटा इससे पहले भी मुंबई बम ब्लास्ट वाले मामले में निडर हॊकर गवाही देकर समाज के प्रति अपने संवेदनशील हॊने का परिचय दे चुकी हैं

Sunday, January 25, 2009

सलाम गणतंत्र

गणतंत्र दिवस की सबको शुभकामनायें,
गर्व करें की हम भारतीय हैं , और संकल्प लें की हम अपने देश के कानून की इज्जत करेंगे और इसकी गरिमा बनाये रखेंगे,

Saturday, January 3, 2009

रिश्ते की आड़

मंगेतर कह कर मीना ने
जिससे मिलवाया था
पिछली राखी पर वह
उससे राखी बंधवाने आया था,
समझदानी मैं बात घुसती नही देख
मैंने पूछा,
ये कैसी सगाई है
इस साल का मंगेतर
पिछले साल का भाई है,
वो बोली
तू भी ना शिवराज
कुछ नही समझता
वो तो एक दिखावा था
ताकि उस रिश्ते की आड़ मैं
यह रिश्ता पलता रहे
लोगों की नजरों से बचा रहे
शिवराज गूजर

Thursday, January 1, 2009

लोकल भाषा भी जानें

शहर मैं आने के बाद गाँव वाले भी शहर के रंग मैं रंग जाते हैं, यहाँ तक की उनका बोलना -चलना और रहन -सहन का डंग भी पूरी तरह बदल जाता है, ऐसे मैं उनके सहर वाले घर शिवराज पैदा होने वाला बच्चाभी पूरी तरह शहरी ही होता है, जब वे गाँव जाते हैं तो अजीब -अजीब सवाल करते हैं, मेरे एक परिचित के बच्चे ने तो बावडी को देख कर बड़ा विचित्र सा सवाल किया, अंकल ये अंडरग्राउंड मकान किसका है, यह सुनकर मुझे हँसी आ गयी, मुझ पर ध्यान दिए बगेर वो बोला बरसात के दिनों मैं तो इसमें पानी भर जाता होगा, फिर ये लोग कहाँ जाते होंगे, जब मैंने उसे बताया की यह बनाई ही पानी के लिए ही गयी है, इसमें कोई नही रहता, इसे बावडी कहते हैं, वो बड़ा खुश हुआ और कहने लगा मैं अपने दोस्तों को बताऊँगा की मैंने सच की बावडी देखि है,
एक और अजीब किस्सा सुनिए, मैं बस से अजमेर जा रहा था, चालक के केबिन के पीछे वाली सीट पर जगह थी सो मैं वहीं
बेठ गया, रस्ते मैं दो लड़कियों को लघुशंका की शिकायत हुयी तो वे चालक की केबिन के पास आकर खड़ी हो गयीं. उन्होंने चालक से कहा की अंकल हमें टॉयलेट करनी है. चालक बेचारा ज्यादा पड़ा लिखा नही था, उसे कुछ समझ नही आया. सो वो बस मुस्करा कर रह गया, थोडी देर बाद उन्होंने फ़िर कहा अंकल बाथरूम करना है, चालक फ़िर मुस्करा कर रह गया, और बस अपनी रफ़्तार से रास्ता नापती रही, उनकी परेशानी बाद रही थी, यह देख मैंने चालक से कहा, की भाई साहब आपको सुने नही देता क्या ये बच्चियां कितनी देर से लघुशंका के लिए कह रही हैं, उसने साथ के साथ ब्रेक लगा दिए, फ़िर मुदा और हाथ जोड़ते हुए बोला, देविओं मैं कोने जानू अंग्रेजी, मैं समझया कोने की तुम काई खे रही छो, पिशाब के लिए खे देती तो इतरी परेशां तो कोणी होती, वो लड़किया शर्मिंदा सी होती हुयी नीचे उतर गयी लघुशंका के लिए,



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