Sunday, January 17, 2010

गुडिय़ा का ब्याह

दोपहर का वक्त था। रोज की तरह चिड़कली छोटी बहन पंखी के साथ मिलकर अपनी गुडिय़ा का ब्याह रचाने में मशगूल थी। पास ही बैठी नाथी देवी रस्सी बटने के साथ-साथ शादी के सभी आयोजनों में शरीक थीं। विदाई की बेला थी। दहेज का सामान रखा जा रहा था। अन्य सामानों के साथ जब चिड़कली ने केरोसिन और माचिस का नाम लिया तो रस्सी बट रहे नाथी देवी के हाथ एक दम से थम गए।

'यह क्या बेटी दहेज के सामान में केरोसिन और माचिस!'

'हां बा'

वो क्यों?

नाथी देवी के सवाल पर चिड़कली जैसे एकदम से बड़ी हो गई। समझाने वाले से अंदाज में बोली-'अरे बा। आप भी ना। जब यह ससुराल वालों की मांगें पूरी नहीं कर पाएगी तो इसी केरोसिन और माचिस से तो इसकी चिता जलेगी।'

पोती का यह जवाब सुनकर नाथी देवी सन्न रह गई। इतनी सी उम्र और ऐसी बातें। रोकते-रोकते भी नाथी देवी का गुस्सा नाक पर आ ही गया

'क्या बकती है तूं। कहां से सीखा यह।'

दादी कीं डांट से सहमकर पंखी तो अपनी दीदी के पीछे जा छिपी, लेकिन चिड़कली कहां जाती। डरते-डरते बोली -

'डांटती क्यों हो बा। नाडे वाले चाचा के टीवी में रोज ही बताते हैं। जब भी कोई दुल्हन ससुराल वालों की मांग पूरी नहीं कर पाती सास या ननद उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला देती हैं, और दादी कई बार तो पति भी।' आइस-पाइस में डाम देते समय गिनने वाली गिनती की तरह वह एक ही सांस में पूरी बात बोल गई थी।

पोती की बात सुनकर नाथी देवी सोच में पड़ गई।

'हे भगवान, ऐसी बातें सिखाता है टीवी। अच्छा हुआ मैं नहीं गई देखने। नानी और संतोकी तो रोज चलने के लिए कहती थी, लेकिन मुझे तो बालाजी ने ही बचाया', कहते हुए उसने बालाजी के मंदिर की ओर मुंह करके हाथ जोड़ दिए।

चिड़कली और पंखी के पास इतना समय कहां था, वो तो जुट गई थीं गुडिय़ा की विदाई में।
(यह मेरी नवीनतम रचना है जो शुक्रवार पत्रिका के 25 दिसंबर के अंक में प्रकाशित हुई है।)

Wednesday, January 13, 2010

वो काटा के शोर में स्मृतियों की पतंग

आज बहुत ठंड थी। धूप खाने छत पर चला आया। दोनों बेटे और बेटी पतंग उड़ाने में मस्त थे। मैं पहुंचा तो हल्की सी मुस्कराहट के साथ देखा और फिर से नजरें टिका दीं आसमान पर। अभी ठीक से बैठा भी नहीं था कि वो काटा के शोर ने बरबस ही ध्यान खींच लिया। किसी की पतंग कट गई थी शायद। हवा में लहरा कर जा रही पतंग के साथ ही जाने कब बचपन के दिन छम से स्मृतियों में उतर आए। गांव उतर आया आंखों में। रामनाराण्यां, सांवळ्या और मैं आ गए थे गरियाले (मोहल्ले का चौक ) में। खाज्या खेलने। उन दिनों सकरांत पर पतंग नहीं उड़ाते थे। दड़ी (गेंद) और खाज्या ही खेले जाते थे। पतंग दुर्गा दाजी की दुकान में मिलते नहीं थे। गांव में अकेली उनकी दुकान थी। ऐसे में स्कूल की कॉपी के बीच वाले पन्ने के दोनों सिरों पर धागा बांधकर पीछे कागज की पूंछ लगाकर हम ही पतंग बना लिया करते थे। उसकी खासियत यह हुआ करती थी कि वो इन पतंगों की तरह खड़े -खड़े नहीं उड़ाया जा सकता थ। उसे उड़ाने के लिए दौडऩा पड़ता था। इसलिए जिस दिन वो पतंग बना लेते थे उस दिन तो पूरे दिन गलियां ही नापते रहते थे। खैर हम खाज्या खेल रहे थे।
खाज्या से मतलब उस छोटे गढढे से है, जिसमें खेलने वाला लकड़ी टिकाए रहता है। एक जना डाम देता है। उसे गेंद (कपड़े से बनाई हुई) उठाकर खाज्या में लकड़ी टिकाए खड़े खिलाडिय़ों में से किसी को मारना होता है। जिसके गेंद लग जाए उसे डाम देना होता है। गेंद उठाकर फेंकना इतना आसान नहीं होता, क्योंकि सभी खिलाड़ी लकडिय़ों से गेंद पर मारने को तैयार रहते हैं। कई बार तो गेंद पकडऩे वाले के हाथों पर भी लग जाती थी। गेंछ को हिट मारने वाले खिलाड़ी को गेंद पर मारते ही दौड़कर अपना खाज्या बचाना होता था। अगर उससे पहले डाम देने वाला खाज्या पर पैर रख देता है तो वो खाज्या उसका हो जाता है और खिलाड़ी को उसे लकड़ी देते हुए खाज्या छोड़कर डाम देना पड़ा है। इस तरह खाज्या कब्जाने वाले को खाज्या का चोर कहते हैं। ऐसे खाज्या के चोर के वो डाम देने वाला गेंद मार सकता है। यदि मान लो किसी ने खिलाड़ी के गेंछ मारकर खाज्या प्राप्त करता है तो वह खाज्या का बाप कहलाता है। ऐसे में खाज्या का पूर्व मालिक डाम देते समय उसे गेंद नहीं मार सकता जब तक कि गेद के टोरा (हिट) नहीं लग जाए।
वो काटा के शोर के साथ ही स्मृतियों की पतंग कट गई थी। बचपन के दिन फुर्र हो गए थे वो काटा के शोर में। हो सकता है व्यस्तता के चलते मैं कल पतंग भी नहीं उड़ा पाऊं, लेकिन स्मृतियों में ही सही पुराने भायलों के साथ खाज्या खेलकर सकरांत मनाने में बहुत मजा आया।

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