Sunday, September 21, 2008

विडम्बना

चांदपोल चलोगे,
इस शब्द ने जैसे कालू के कानो मैं सहद घोल दिया, वह अभी घर से रिक्शा लेकर बड़ी चोपड पहुँचा ही था, ऐसा कभी - कभार ही होता थाकि पहुँचते ही सवारी मिल जाए, कई बार तो घंटों इन्तेजार करना पड़ जाता था,
हाँ क्यों नही, बेठो, वो चहकते हुए बोला
कितना लोगे
पाँच रुपये
चांदपोल के पाँच रुपये
ज्यादा नही मांग रहा हूँ बाबूजी, बोहनी का वक्त है इसलिए पाँच ही मांग रहा हूँ, वरना तो छः रुपये से कम नही लेता,
रहने दे, सिखा मत, चार रूपये लेना है तो बोल, वरना अभी बस आने ही वाली है,
बस का नाम सुनते ही कालू कुछ दीला पड़ गया, फिर बोहनी करनी थी सो वह चार रुपये मैं सवारी को ले जाने के लिए तैयार हो गया,
सवारी के बैठते ही कालू ने चला दिए पेडल पर पैर ,
चांदपोल पहुंचकर सवारी जब उसे पाँच रुपये का नोट देने लगी तो उसने खुले नही होने की समस्या बताई
सवारी ने बुरा सा मुह बनाया, खुले नही है, मैं सब समझता हूँ, लेकिन मैं भी कम नही हूँ,
कहते हुए सवारी पास ही पान वाले कि दुकान पर चली गयी,
पान वाले ने कुछ लिए बगेर खुले देने से मन कर दिया, इस पर सवारी ने कहा, मैं कुछ खाता तो हूँ नही एक रुपये कुछ भी दे दे यार, वो रिक्शे वाले को किराया देना है,
पान वाले ने उसे एक गुटखा देते हुए खुले रुपये पकड़ा दिए,
सवारी ने गुटखा फाड़ कर मसाला मुह मैं डाला कालू को चार रुपये पकडाये और चल दी अपनी राह
कालू को ख़ुद पर ही हँसी आ गयी, एक रूपया जो उसका जायज हक़ थासवारी उसे देने के बजाय उससे एक ग़लत आदत की शुरुआत कर गयी,
उसने आसमान की और देखाऔर चला दिए पेडल पर पैर
शिवराज गूजर


Friday, September 19, 2008

व्यंगिका

जातिवाद मिटाने का
अभी-अभी वादा करके
सभा से लोटे नेताजी
कार्यकर्ताओं से बोले
पता करो, उस एरिये मैं
किस जाती का बोलबाला है
उसी हिसाब से रणनीति बनायें
चुनाव का वक्त आने वाला है
शिवराज गूजर

Thursday, September 18, 2008

नेता

वोट देकर हाथ अभी डीला भी नही पड़ा है
झोली फैलाये वो फिर मेरे दर पर खड़ा है

जाति के नाम मजहब के नाम दे दे बाबा
अदद वोट की रट पकडे मेरे पीछे पड़ा है

पिछली बार माँगा था जिसकी बुराई करके
उसी दल का पट्टा अब गले मैं बांधे खड़ा है

पिछले वादों का तो हिसाब अभी किया नही
नए वादों का और वो पुलंदा लिए खड़ा है

सड़क, नल, बिजली, नौकरी जो चाहे मांगले
फकीर दर पर देख खुदा बन कर खड़ा है

Sunday, September 14, 2008

हमने तो पहले ही चेता दिया था

बचपन मैं सुना करते थे किडाकू किसी को भी लूटने से पहले इश्तेहार चिपका दिया करते थे, जिसमें लूट का दिन, किसके यहाँ लूट करेंगे और कब करेंगे यह सब लिखा रहता था, तय दिन को पूरी सुरक्षा व्यस्था को धता बताते हुए डाकू वारदात को अंजाम दे जाते थे और पुलिस हाथ मलती रह जाती थी, ऐसी कई फिल्में भी बनी थी जिनमें ये सब दिखाया गया था,
तब ये सब सुनते थे, आज देख रहे हैं, बदला है तो बस ये कि अब डाकू कि जगह आतंकवादी ने ले ली है और इश्तेहार की जगह मेल ने, उनके हलकारे कि जगह मीडिया ने ले ली है, जो उनके मेल को लेकर डिन्डोरा पीटता रहता है, जैसे ही आतंकवादी कहीं कोई वारदात करते हैं, सुरक्षा एजेंसियों का वही सदा गला बयान आ जाता है हमने तो पहले ही चेता दिया था, लगता है चेताने के आलावा इनका कोई काम ही नही रह गया है,

Sunday, September 7, 2008

जमाना

बहुत दिलफरेब यह जमाना है बाबू
अंदर कुछ, बाहर कुछ फसाना है बाबू

भाई-बहन जैसा पाक रिश्ता भी आजकल
अवैध सम्बन्ध छुपाने का बहाना है बाबू

घर-बाहर घूरती है जिस्म को भूखी आँखें
मुस्किल ऐसे मैं अस्मत बचाना है बाबू

खाओ रहम किसी पे वाही रेत देता है गला
इनायत अब आफत गले लगाना है बाबू

सेवा नही रह गयी देश की अब नेतागीरी
ये व्यापार है, जिससे घर सजाना है बाबू

घर मैं हो बेटा, उस पर हो नौकरीपेशा
बेटा नहीं, वह कुबेर का खजाना है बाबू
शिवराज गूजर

468x60 Ads

728x15 Ads