Sunday, August 29, 2010

कोई नई बात करो!

हर रोज
काम पर जाते वक्त
करता है खुद से
एक वादा
आज लौट आऊंगा
घर जल्दी
कुछ वक्त बिताऊंगा
बच्चों के साथ
बीवी के साथ
कुछ दुख-कुछ सुख
की बातें करूंगा
मां-बाबूजी के साथ
पर
पलटता है जब
हो चुकी होती है रात
सो चुके होते हैं बच्चे
मां-बाबूजी के खर्राटे
बता देते हैं गहरी नींद में हैं
श्रीमतीजी जरूर मुस्कुराती
होती है मुखातिब
पर, आंखों में कुलबुला ही जाती है
शिकायत
स्वचालित मशीन से होंठ
फिर वही दोहरा देते हैं
कल जरूर वक्त पर आऊंगा
और हम....
छोड़ो, कोई नई बात करो
हाथ-मुंह धोलो
मैं खाना लगा देती हूं
कहती हुई वो चली जाती है
रसोई में खाना गर्म करने

शिवराज गूजर

Friday, August 6, 2010

इंटरव्यू

अजी सुनते हो
घर में घुसा ही था कि श्रीमती जी बोलीं
मुन्ना चलने लग गया है.
हाँ, फिर ?
फिर क्या ?
दाखिला नहीं कराना है स्कूल में
मैं चौंका,
यह नन्ही जान
खुली नहीं अभी ढंग से जबान
क्या पढेगा ?
अजी अभी पढाना किसको है.
यह तो रिहर्सल है, स्कूल जाने की
और फिर यहाँ यह रोता भी है
वहाँ मेडमें होंगी,
वो खिलाएँगी इसे
टोफियाँ देंगी.
हमें भी कुछ देर सुकून तो मिलेगा
मगर भागवान...
बात पूरी होने से पहले बोल पड़ी वो
मगर -वगर कुछ नहीं
मैं फार्म ले आई हूँ प्रवेश का
कल इंटरव्यू है अपना
तुम्हें भी चलना है.
प्रवेश बच्चे का, इंटरव्यू अपना ?
जी हाँ. यह प्रीव्यू है पेरेंट्स का
बच्चा तो ढंग से बोलता भी नहीं अभी
क्या पूछेंगे इससे
तो हमसे क्या पूछेंगे ?
यही कि, क्या हम समय दे पाएंगे
इसे घर पर
रोज दो चार घंटे पढाने का.

शिवराज गूजर

Saturday, July 31, 2010

सही-गलत

1
हां ! भई
अब क्यों आएगा तूं
गांव।
कौन है अब तेरा यहां।
तेरी लुगाई
और तेरे बच्चे
ले गया तू शहर
यह झिड़की सुननी पड़ती है
हर उस बेटे को
जो आ गया है शहर
रोजी-रोटी कमाने।
आया था जब वो शहर
अकेला था
सो भाग जाता था गांव
सप्ताह-महीन में।
अब यह नहीं हो पाता
इतनी जल्दी
क्योंकि-
अब बढ़ गई है जिम्मेदारियां
अनजान शहर में
किराए के मकान में
बच्चों को किसके भरोसे छोड़
हो आए हर सप्ताह गांव
और फिर गांव जाना भी तो
अब हो गया है महंगा
बच्चों की फीस और घर-खर्च
ही निगल जाते हैं महीने का वेतन
ऐसे में गांव पैसा भिजवाना
भी नहीं हो पाता मुमकिन
कई-कई महीने
2
उनका सोचना भी
नहीं है गलत
पेट भरने भर के लिए
शहर में परेशान होना
कहां की समझदारी है
घर पर खेती है
इतना तो
यहीं कमा लेगा
उतनी मेहनत करके
और फिर
पेट ही भरना है तो
वो तो जानवर भी भर लेते हैं।

शिवराज गूजर

Thursday, July 8, 2010

मंदरो-मंदरो मेह

मंदरो-मंदरो बरसे मेह
मन हरसावे मिनखां रो
जीव-जनावर राजी होग्या
रूप निखरग्यो रूंखां रो

करषां का खिलग्या मुखड़ा
देख मुळकता खेतां ने
बैठ मेड़ पै गावे हाळीड़ा
छोड़ माळ में बेलां ने

हरख्यो-हरख्यो दीखे कांकड़
ओढ्यां चादर हरियाळी
ढांढा छोड़ खेलरया ग्वाळ्या
छोड़ आपणी फरवाळी

शिवराज गूजर

Sunday, May 9, 2010

मेरी मम्मी

आज मदर्स डे है। यानी मां का दिन। मां, जिसने हमारे अस्तित्व में आने की प्रक्रिया की पहली अवस्था से लेकर आज के दिन तक हर पल हमारे लिए और सिर्फ हमारे लिए जीवन जिया है। परिवार के लोगों की हर जरूरत का ध्यान रखने में भी उसकी नजर कहीं न कहीं से हमारी ही ओर निहारती रही। तीन बच्चों का पिता होने के बावजूद आज भी मैं उसके लिए छोटा बच्चा ही हूं। गांव जाता हूं तो वे बिल्कुल उसी तरह मेरा ध्यान रखती हैं जैसे पैंतीस साल पहले, जब मैं बोलना भी नहीं जानता था, तब रखती थी। आज मैं खुद कमाने लग गया हूं, पर जब भी मैं शहर के लिए रवाना होता हूं तो वो पापा से यही कहती हैं, सोराज (गांव में सब मुझे सोराज ही कहते हैं) न पीसा दे अर आज्यो। शहर मैं कांई तोल क्यान परेशान रेतो होवेलो। योतो खे कोने। मैं मना करता रह जाता हूं और वो पापा से पैसे दिलवाकर ही मानती हैं। साथ ही कई बार तो अपनी बचत को भी वे धरे से मेरी जेब मेंं सरका देती हैं। उसी मां के लिए मैंने चंद लाइनें लिखी हैं। वो तो पढ़ नहीं पाएंगी क्योंकि वो कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन मैं अपनी भावनाएं आप लोगों से शेयर करना चाहता हूं।

मुझको सबसे प्यार है, मेरी मम्मी
जग में सबसे न्यारी है, मेरी मम्मी

आंखों में आंसू भर आए
हल्की सी जो चोट मुझे आ जाए
ठोकर मुझको लग जाए तो
देती पत्थर को भी गारी है, मरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

ऐसी भूल कभी मुझसे हो जाए
जो पापा को गुस्सा आए
मुझे बचाने की खातिर
खुद ओढ़े गलती सारी है, मेरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

गलती जो कोई मुझसे हो जाए
बड़े प्यार से वो समझाए
क्या गलत और क्या है सही
बात बताए सारी है, मेरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

Friday, April 16, 2010

कुछ बहुएं भी ना!

गंदे कपड़े
जूठे बरतन
बूढ़ी सास के आगे पटक
सहेली के साथ
फिल्म देखने निकली
मिसेज शर्मा
परदे पर
बहू के सास पर
अत्याचार देख
फूट-फूट कर रोई
सहेली के कंधे पर
सिर रखकर
सिसकते हुए बोली-
कुछ बहुएं भी ना!


-शिवराज गूजर

Friday, April 2, 2010

बदलाव

बेटे की शादी के बाद
उसमें बड़ा बदलाव आया
दहेज के विरोध में
उसने बड़ा आंदोलन चलाया
सोई हुई उसकी आत्मा
अचानक! जाग गई थी
बेटी जो उसकी
शादी के लायक हो गई थी।

शिवराज गूजर

Sunday, January 17, 2010

गुडिय़ा का ब्याह

दोपहर का वक्त था। रोज की तरह चिड़कली छोटी बहन पंखी के साथ मिलकर अपनी गुडिय़ा का ब्याह रचाने में मशगूल थी। पास ही बैठी नाथी देवी रस्सी बटने के साथ-साथ शादी के सभी आयोजनों में शरीक थीं। विदाई की बेला थी। दहेज का सामान रखा जा रहा था। अन्य सामानों के साथ जब चिड़कली ने केरोसिन और माचिस का नाम लिया तो रस्सी बट रहे नाथी देवी के हाथ एक दम से थम गए।

'यह क्या बेटी दहेज के सामान में केरोसिन और माचिस!'

'हां बा'

वो क्यों?

नाथी देवी के सवाल पर चिड़कली जैसे एकदम से बड़ी हो गई। समझाने वाले से अंदाज में बोली-'अरे बा। आप भी ना। जब यह ससुराल वालों की मांगें पूरी नहीं कर पाएगी तो इसी केरोसिन और माचिस से तो इसकी चिता जलेगी।'

पोती का यह जवाब सुनकर नाथी देवी सन्न रह गई। इतनी सी उम्र और ऐसी बातें। रोकते-रोकते भी नाथी देवी का गुस्सा नाक पर आ ही गया

'क्या बकती है तूं। कहां से सीखा यह।'

दादी कीं डांट से सहमकर पंखी तो अपनी दीदी के पीछे जा छिपी, लेकिन चिड़कली कहां जाती। डरते-डरते बोली -

'डांटती क्यों हो बा। नाडे वाले चाचा के टीवी में रोज ही बताते हैं। जब भी कोई दुल्हन ससुराल वालों की मांग पूरी नहीं कर पाती सास या ननद उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला देती हैं, और दादी कई बार तो पति भी।' आइस-पाइस में डाम देते समय गिनने वाली गिनती की तरह वह एक ही सांस में पूरी बात बोल गई थी।

पोती की बात सुनकर नाथी देवी सोच में पड़ गई।

'हे भगवान, ऐसी बातें सिखाता है टीवी। अच्छा हुआ मैं नहीं गई देखने। नानी और संतोकी तो रोज चलने के लिए कहती थी, लेकिन मुझे तो बालाजी ने ही बचाया', कहते हुए उसने बालाजी के मंदिर की ओर मुंह करके हाथ जोड़ दिए।

चिड़कली और पंखी के पास इतना समय कहां था, वो तो जुट गई थीं गुडिय़ा की विदाई में।
(यह मेरी नवीनतम रचना है जो शुक्रवार पत्रिका के 25 दिसंबर के अंक में प्रकाशित हुई है।)

Wednesday, January 13, 2010

वो काटा के शोर में स्मृतियों की पतंग

आज बहुत ठंड थी। धूप खाने छत पर चला आया। दोनों बेटे और बेटी पतंग उड़ाने में मस्त थे। मैं पहुंचा तो हल्की सी मुस्कराहट के साथ देखा और फिर से नजरें टिका दीं आसमान पर। अभी ठीक से बैठा भी नहीं था कि वो काटा के शोर ने बरबस ही ध्यान खींच लिया। किसी की पतंग कट गई थी शायद। हवा में लहरा कर जा रही पतंग के साथ ही जाने कब बचपन के दिन छम से स्मृतियों में उतर आए। गांव उतर आया आंखों में। रामनाराण्यां, सांवळ्या और मैं आ गए थे गरियाले (मोहल्ले का चौक ) में। खाज्या खेलने। उन दिनों सकरांत पर पतंग नहीं उड़ाते थे। दड़ी (गेंद) और खाज्या ही खेले जाते थे। पतंग दुर्गा दाजी की दुकान में मिलते नहीं थे। गांव में अकेली उनकी दुकान थी। ऐसे में स्कूल की कॉपी के बीच वाले पन्ने के दोनों सिरों पर धागा बांधकर पीछे कागज की पूंछ लगाकर हम ही पतंग बना लिया करते थे। उसकी खासियत यह हुआ करती थी कि वो इन पतंगों की तरह खड़े -खड़े नहीं उड़ाया जा सकता थ। उसे उड़ाने के लिए दौडऩा पड़ता था। इसलिए जिस दिन वो पतंग बना लेते थे उस दिन तो पूरे दिन गलियां ही नापते रहते थे। खैर हम खाज्या खेल रहे थे।
खाज्या से मतलब उस छोटे गढढे से है, जिसमें खेलने वाला लकड़ी टिकाए रहता है। एक जना डाम देता है। उसे गेंद (कपड़े से बनाई हुई) उठाकर खाज्या में लकड़ी टिकाए खड़े खिलाडिय़ों में से किसी को मारना होता है। जिसके गेंद लग जाए उसे डाम देना होता है। गेंद उठाकर फेंकना इतना आसान नहीं होता, क्योंकि सभी खिलाड़ी लकडिय़ों से गेंद पर मारने को तैयार रहते हैं। कई बार तो गेंद पकडऩे वाले के हाथों पर भी लग जाती थी। गेंछ को हिट मारने वाले खिलाड़ी को गेंद पर मारते ही दौड़कर अपना खाज्या बचाना होता था। अगर उससे पहले डाम देने वाला खाज्या पर पैर रख देता है तो वो खाज्या उसका हो जाता है और खिलाड़ी को उसे लकड़ी देते हुए खाज्या छोड़कर डाम देना पड़ा है। इस तरह खाज्या कब्जाने वाले को खाज्या का चोर कहते हैं। ऐसे खाज्या के चोर के वो डाम देने वाला गेंद मार सकता है। यदि मान लो किसी ने खिलाड़ी के गेंछ मारकर खाज्या प्राप्त करता है तो वह खाज्या का बाप कहलाता है। ऐसे में खाज्या का पूर्व मालिक डाम देते समय उसे गेंद नहीं मार सकता जब तक कि गेद के टोरा (हिट) नहीं लग जाए।
वो काटा के शोर के साथ ही स्मृतियों की पतंग कट गई थी। बचपन के दिन फुर्र हो गए थे वो काटा के शोर में। हो सकता है व्यस्तता के चलते मैं कल पतंग भी नहीं उड़ा पाऊं, लेकिन स्मृतियों में ही सही पुराने भायलों के साथ खाज्या खेलकर सकरांत मनाने में बहुत मजा आया।

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