घर में घुसा ही था कि श्रीमती जी बोलीं
मुन्ना चलने लग गया है.
हाँ, फिर ?
फिर क्या ?
दाखिला नहीं कराना है स्कूल में
मैं चौंका,
यह नन्ही जान
खुली नहीं अभी ढंग से जबान
क्या पढेगा ?
अजी अभी पढाना किसको है.
यह तो रिहर्सल है, स्कूल जाने की
और फिर यहाँ यह रोता भी है
वहाँ मेडमें होंगी,
वो खिलाएँगी इसे
टोफियाँ देंगी.
हमें भी कुछ देर सुकून तो मिलेगा
मगर भागवान...
बात पूरी होने से पहले बोल पड़ी वो
मगर -वगर कुछ नहीं
मैं फार्म ले आई हूँ प्रवेश का
कल इंटरव्यू है अपना
तुम्हें भी चलना है.
प्रवेश बच्चे का, इंटरव्यू अपना ?
जी हाँ. यह प्रीव्यू है पेरेंट्स का
बच्चा तो ढंग से बोलता भी नहीं अभी
क्या पूछेंगे इससे
तो हमसे क्या पूछेंगे ?
यही कि, क्या हम समय दे पाएंगे
इसे घर पर
रोज दो चार घंटे पढाने का.
शिवराज गूजर
4 comments:
वाहजी, बहुत अच्छा लिखा, पढकर मजा आ गया !
thanks sitaramji. isi tarah utsah badate rahen.
सादर प्रणाम !
शिव ट्राज जी !
आज का यथार्थ है बच्चा जन्म ते ही उस कि स्कूल प्रवेश कि चिंता लग जाती है , वो भी इंग्लिश मीडियम में , जहा माता - पिता को पहले पास होना ज़रूरी है ,
सादर
Rightly said my dear.No body now wants to have a child like child.Every one wishes to have a matured man ,more than himself and in such tensions,undue wishes of parents childhood disappears and ultimatelt prduces frustration and complexities in children.My best wishes to raise such sensitive problem in yr poetry.
dr.bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
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