गंदे कपड़े
जूठे बरतन
बूढ़ी सास के आगे पटक
सहेली के साथ
फिल्म देखने निकली
मिसेज शर्मा
परदे पर
बहू के सास पर
अत्याचार देख
फूट-फूट कर रोई
सहेली के कंधे पर
सिर रखकर
सिसकते हुए बोली-
कुछ बहुएं भी ना!
-शिवराज गूजर
Friday, April 16, 2010
Friday, April 2, 2010
बदलाव
बेटे की शादी के बाद
उसमें बड़ा बदलाव आया
दहेज के विरोध में
उसने बड़ा आंदोलन चलाया
सोई हुई उसकी आत्मा
अचानक! जाग गई थी
बेटी जो उसकी
शादी के लायक हो गई थी।
शिवराज गूजर
उसमें बड़ा बदलाव आया
दहेज के विरोध में
उसने बड़ा आंदोलन चलाया
सोई हुई उसकी आत्मा
अचानक! जाग गई थी
बेटी जो उसकी
शादी के लायक हो गई थी।
शिवराज गूजर
Sunday, January 17, 2010
गुडिय़ा का ब्याह
दोपहर का वक्त था। रोज की तरह चिड़कली छोटी बहन पंखी के साथ मिलकर अपनी गुडिय़ा का ब्याह रचाने में मशगूल थी। पास ही बैठी नाथी देवी रस्सी बटने के साथ-साथ शादी के सभी आयोजनों में शरीक थीं। विदाई की बेला थी। दहेज का सामान रखा जा रहा था। अन्य सामानों के साथ जब चिड़कली ने केरोसिन और माचिस का नाम लिया तो रस्सी बट रहे नाथी देवी के हाथ एक दम से थम गए।
'यह क्या बेटी दहेज के सामान में केरोसिन और माचिस!'
'हां बा'
वो क्यों?
नाथी देवी के सवाल पर चिड़कली जैसे एकदम से बड़ी हो गई। समझाने वाले से अंदाज में बोली-'अरे बा। आप भी ना। जब यह ससुराल वालों की मांगें पूरी नहीं कर पाएगी तो इसी केरोसिन और माचिस से तो इसकी चिता जलेगी।'
पोती का यह जवाब सुनकर नाथी देवी सन्न रह गई। इतनी सी उम्र और ऐसी बातें। रोकते-रोकते भी नाथी देवी का गुस्सा नाक पर आ ही गया
'क्या बकती है तूं। कहां से सीखा यह।'
दादी कीं डांट से सहमकर पंखी तो अपनी दीदी के पीछे जा छिपी, लेकिन चिड़कली कहां जाती। डरते-डरते बोली -
'डांटती क्यों हो बा। नाडे वाले चाचा के टीवी में रोज ही बताते हैं। जब भी कोई दुल्हन ससुराल वालों की मांग पूरी नहीं कर पाती सास या ननद उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला देती हैं, और दादी कई बार तो पति भी।' आइस-पाइस में डाम देते समय गिनने वाली गिनती की तरह वह एक ही सांस में पूरी बात बोल गई थी।
पोती की बात सुनकर नाथी देवी सोच में पड़ गई।
'हे भगवान, ऐसी बातें सिखाता है टीवी। अच्छा हुआ मैं नहीं गई देखने। नानी और संतोकी तो रोज चलने के लिए कहती थी, लेकिन मुझे तो बालाजी ने ही बचाया', कहते हुए उसने बालाजी के मंदिर की ओर मुंह करके हाथ जोड़ दिए।
चिड़कली और पंखी के पास इतना समय कहां था, वो तो जुट गई थीं गुडिय़ा की विदाई में।
(यह मेरी नवीनतम रचना है जो शुक्रवार पत्रिका के 25 दिसंबर के अंक में प्रकाशित हुई है।)
'यह क्या बेटी दहेज के सामान में केरोसिन और माचिस!'
'हां बा'
वो क्यों?
नाथी देवी के सवाल पर चिड़कली जैसे एकदम से बड़ी हो गई। समझाने वाले से अंदाज में बोली-'अरे बा। आप भी ना। जब यह ससुराल वालों की मांगें पूरी नहीं कर पाएगी तो इसी केरोसिन और माचिस से तो इसकी चिता जलेगी।'
पोती का यह जवाब सुनकर नाथी देवी सन्न रह गई। इतनी सी उम्र और ऐसी बातें। रोकते-रोकते भी नाथी देवी का गुस्सा नाक पर आ ही गया
'क्या बकती है तूं। कहां से सीखा यह।'
दादी कीं डांट से सहमकर पंखी तो अपनी दीदी के पीछे जा छिपी, लेकिन चिड़कली कहां जाती। डरते-डरते बोली -
'डांटती क्यों हो बा। नाडे वाले चाचा के टीवी में रोज ही बताते हैं। जब भी कोई दुल्हन ससुराल वालों की मांग पूरी नहीं कर पाती सास या ननद उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला देती हैं, और दादी कई बार तो पति भी।' आइस-पाइस में डाम देते समय गिनने वाली गिनती की तरह वह एक ही सांस में पूरी बात बोल गई थी।
पोती की बात सुनकर नाथी देवी सोच में पड़ गई।
'हे भगवान, ऐसी बातें सिखाता है टीवी। अच्छा हुआ मैं नहीं गई देखने। नानी और संतोकी तो रोज चलने के लिए कहती थी, लेकिन मुझे तो बालाजी ने ही बचाया', कहते हुए उसने बालाजी के मंदिर की ओर मुंह करके हाथ जोड़ दिए।
चिड़कली और पंखी के पास इतना समय कहां था, वो तो जुट गई थीं गुडिय़ा की विदाई में।
(यह मेरी नवीनतम रचना है जो शुक्रवार पत्रिका के 25 दिसंबर के अंक में प्रकाशित हुई है।)
Wednesday, January 13, 2010
वो काटा के शोर में स्मृतियों की पतंग
आज बहुत ठंड थी। धूप खाने छत पर चला आया। दोनों बेटे और बेटी पतंग उड़ाने में मस्त थे। मैं पहुंचा तो हल्की सी मुस्कराहट के साथ देखा और फिर से नजरें टिका दीं आसमान पर। अभी ठीक से बैठा भी नहीं था कि वो काटा के शोर ने बरबस ही ध्यान खींच लिया। किसी की पतंग कट गई थी शायद। हवा में लहरा कर जा रही पतंग के साथ ही जाने कब बचपन के दिन छम से स्मृतियों में उतर आए। गांव उतर आया आंखों में। रामनाराण्यां, सांवळ्या और मैं आ गए थे गरियाले (मोहल्ले का चौक ) में। खाज्या खेलने। उन दिनों सकरांत पर पतंग नहीं उड़ाते थे। दड़ी (गेंद) और खाज्या ही खेले जाते थे। पतंग दुर्गा दाजी की दुकान में मिलते नहीं थे। गांव में अकेली उनकी दुकान थी। ऐसे में स्कूल की कॉपी के बीच वाले पन्ने के दोनों सिरों पर धागा बांधकर पीछे कागज की पूंछ लगाकर हम ही पतंग बना लिया करते थे। उसकी खासियत यह हुआ करती थी कि वो इन पतंगों की तरह खड़े -खड़े नहीं उड़ाया जा सकता थ। उसे उड़ाने के लिए दौडऩा पड़ता था। इसलिए जिस दिन वो पतंग बना लेते थे उस दिन तो पूरे दिन गलियां ही नापते रहते थे। खैर हम खाज्या खेल रहे थे।
खाज्या से मतलब उस छोटे गढढे से है, जिसमें खेलने वाला लकड़ी टिकाए रहता है। एक जना डाम देता है। उसे गेंद (कपड़े से बनाई हुई) उठाकर खाज्या में लकड़ी टिकाए खड़े खिलाडिय़ों में से किसी को मारना होता है। जिसके गेंद लग जाए उसे डाम देना होता है। गेंद उठाकर फेंकना इतना आसान नहीं होता, क्योंकि सभी खिलाड़ी लकडिय़ों से गेंद पर मारने को तैयार रहते हैं। कई बार तो गेंद पकडऩे वाले के हाथों पर भी लग जाती थी। गेंछ को हिट मारने वाले खिलाड़ी को गेंद पर मारते ही दौड़कर अपना खाज्या बचाना होता था। अगर उससे पहले डाम देने वाला खाज्या पर पैर रख देता है तो वो खाज्या उसका हो जाता है और खिलाड़ी को उसे लकड़ी देते हुए खाज्या छोड़कर डाम देना पड़ा है। इस तरह खाज्या कब्जाने वाले को खाज्या का चोर कहते हैं। ऐसे खाज्या के चोर के वो डाम देने वाला गेंद मार सकता है। यदि मान लो किसी ने खिलाड़ी के गेंछ मारकर खाज्या प्राप्त करता है तो वह खाज्या का बाप कहलाता है। ऐसे में खाज्या का पूर्व मालिक डाम देते समय उसे गेंद नहीं मार सकता जब तक कि गेद के टोरा (हिट) नहीं लग जाए।
वो काटा के शोर के साथ ही स्मृतियों की पतंग कट गई थी। बचपन के दिन फुर्र हो गए थे वो काटा के शोर में। हो सकता है व्यस्तता के चलते मैं कल पतंग भी नहीं उड़ा पाऊं, लेकिन स्मृतियों में ही सही पुराने भायलों के साथ खाज्या खेलकर सकरांत मनाने में बहुत मजा आया।
खाज्या से मतलब उस छोटे गढढे से है, जिसमें खेलने वाला लकड़ी टिकाए रहता है। एक जना डाम देता है। उसे गेंद (कपड़े से बनाई हुई) उठाकर खाज्या में लकड़ी टिकाए खड़े खिलाडिय़ों में से किसी को मारना होता है। जिसके गेंद लग जाए उसे डाम देना होता है। गेंद उठाकर फेंकना इतना आसान नहीं होता, क्योंकि सभी खिलाड़ी लकडिय़ों से गेंद पर मारने को तैयार रहते हैं। कई बार तो गेंद पकडऩे वाले के हाथों पर भी लग जाती थी। गेंछ को हिट मारने वाले खिलाड़ी को गेंद पर मारते ही दौड़कर अपना खाज्या बचाना होता था। अगर उससे पहले डाम देने वाला खाज्या पर पैर रख देता है तो वो खाज्या उसका हो जाता है और खिलाड़ी को उसे लकड़ी देते हुए खाज्या छोड़कर डाम देना पड़ा है। इस तरह खाज्या कब्जाने वाले को खाज्या का चोर कहते हैं। ऐसे खाज्या के चोर के वो डाम देने वाला गेंद मार सकता है। यदि मान लो किसी ने खिलाड़ी के गेंछ मारकर खाज्या प्राप्त करता है तो वह खाज्या का बाप कहलाता है। ऐसे में खाज्या का पूर्व मालिक डाम देते समय उसे गेंद नहीं मार सकता जब तक कि गेद के टोरा (हिट) नहीं लग जाए।
वो काटा के शोर के साथ ही स्मृतियों की पतंग कट गई थी। बचपन के दिन फुर्र हो गए थे वो काटा के शोर में। हो सकता है व्यस्तता के चलते मैं कल पतंग भी नहीं उड़ा पाऊं, लेकिन स्मृतियों में ही सही पुराने भायलों के साथ खाज्या खेलकर सकरांत मनाने में बहुत मजा आया।
Thursday, December 31, 2009
अलविदा
उसने कहा
मैं जा रही हूं
हमेशा-हमेशा के लिए
तुमसे दूर
बस, जो बचे हैं पल
वो गुजार लो
हंसी-खुशी
मेरे संग
क्या-खोया
क्या-पाया
इसका हिसाब
लगा लेना
कल
अभी तो हूं मैं तुम्हारे
और तुम मेरे साथ
सुनो,
जब मैं चली जाऊंगी
तुम उदास मत होना
रोना भी मत
न घंटों बैठ कर
डूबते सूरज को निहारने में
अपना वक्त बरबाद करना
अगली सुबह
तुम उठना
एक नई ऊर्जा के साथ
एक नये कल की शुरुआत के लिए
अच्छा अलविदा
मेरे हमदम
जाती हुई
2009 की आखिरी शाम
का आखिरी सलाम।
'हैप्पी न्यू इयरÓ
मैं जा रही हूं
हमेशा-हमेशा के लिए
तुमसे दूर
बस, जो बचे हैं पल
वो गुजार लो
हंसी-खुशी
मेरे संग
क्या-खोया
क्या-पाया
इसका हिसाब
लगा लेना
कल
अभी तो हूं मैं तुम्हारे
और तुम मेरे साथ
सुनो,
जब मैं चली जाऊंगी
तुम उदास मत होना
रोना भी मत
न घंटों बैठ कर
डूबते सूरज को निहारने में
अपना वक्त बरबाद करना
अगली सुबह
तुम उठना
एक नई ऊर्जा के साथ
एक नये कल की शुरुआत के लिए
अच्छा अलविदा
मेरे हमदम
जाती हुई
2009 की आखिरी शाम
का आखिरी सलाम।
'हैप्पी न्यू इयरÓ
Tuesday, December 29, 2009
यह कैसी मस्ती?
यह कैसी मस्ती है, जिसमें घरवालों की भावनाओं का, अपने शरीर को होने वाली क्षति का कोई स्थान नहीं है।
मैं पुलिया के नीचे घुसने के लिए मोड़ पर मुड़ा ही था कि सामने से स्कूटी पर तेज गति से आ रही दो युवतियां मेरी बाइक से भिड़ते-भिड़ते बचीं। मेरा जी धक से रह गया। मेरी हड़बड़ाहट पर उनकी हंसी छूट गई। मुंह से हुरर्र करती हुई वो फुरर्र हो गईं। वो तो अपनी राह चली गईं लेकिन मुझे बहुत देर लगी खुद को संयत करने में। अभी-अभी बेटे को डेयरी से दूध दिलाकर घर के बाहर छोड़कर आया था। एक दम से पूरा परिवार आंखों के आगे घूम गया। मन के किसी कोने से सवाल उठा, मुझे कुछ हो जाता तो। सोचों के साथ-साथ मेरी बाइक भी बड़ी जा रही थी। मुझे पुलिया के ऊपर से होकर जाना था। घूमकर जब पुलिया पर चढऩे लगा तो दूसरी तरफ लगी भीड़ पर नजर गई। शायद कोई दुर्घटना हुई थी। अपना इलाका था, सो बाइक साइड में रोकी और वस्तुस्थिति जानने को उतरा। देखा एक आदमी स्कूटी उठा रहा था, और एक युवती का चेहरा खून से लथपथ और एक उसी की हमउम्र उसे संभाल रही थी। लड़की पलटी तो मुंख खुला का खुला रह गया। ये तो वही युवतियां थीं जो मुझसे टकराती-टकराती बचीं थी। बुझे मन से मैंने बाइक उठाई और चल दिया अपनी राह। मन में यही उथल-पुथल मची थी। यह कैसी मस्ती है, जिसमें घरवालों की भावनाओं का, अपने शरीर को होने वाली क्षति का कोई स्थान नहीं है।
मैं पुलिया के नीचे घुसने के लिए मोड़ पर मुड़ा ही था कि सामने से स्कूटी पर तेज गति से आ रही दो युवतियां मेरी बाइक से भिड़ते-भिड़ते बचीं। मेरा जी धक से रह गया। मेरी हड़बड़ाहट पर उनकी हंसी छूट गई। मुंह से हुरर्र करती हुई वो फुरर्र हो गईं। वो तो अपनी राह चली गईं लेकिन मुझे बहुत देर लगी खुद को संयत करने में। अभी-अभी बेटे को डेयरी से दूध दिलाकर घर के बाहर छोड़कर आया था। एक दम से पूरा परिवार आंखों के आगे घूम गया। मन के किसी कोने से सवाल उठा, मुझे कुछ हो जाता तो। सोचों के साथ-साथ मेरी बाइक भी बड़ी जा रही थी। मुझे पुलिया के ऊपर से होकर जाना था। घूमकर जब पुलिया पर चढऩे लगा तो दूसरी तरफ लगी भीड़ पर नजर गई। शायद कोई दुर्घटना हुई थी। अपना इलाका था, सो बाइक साइड में रोकी और वस्तुस्थिति जानने को उतरा। देखा एक आदमी स्कूटी उठा रहा था, और एक युवती का चेहरा खून से लथपथ और एक उसी की हमउम्र उसे संभाल रही थी। लड़की पलटी तो मुंख खुला का खुला रह गया। ये तो वही युवतियां थीं जो मुझसे टकराती-टकराती बचीं थी। बुझे मन से मैंने बाइक उठाई और चल दिया अपनी राह। मन में यही उथल-पुथल मची थी। यह कैसी मस्ती है, जिसमें घरवालों की भावनाओं का, अपने शरीर को होने वाली क्षति का कोई स्थान नहीं है।
Wednesday, December 16, 2009
Thursday, November 26, 2009
Friday, November 6, 2009
सोचता हूँ
सोचता हूँ
क्यों न तुम्हारा नाम
खुसबू रख दूं,
ताकि तुम्हें पुकार सकूं
बेहिचक
कहीं भी, कभी भी
सबके बीच में.
मैं कहूँगा
खुसबू आ रही है.
सब कहेंगे
हाँ, आ रही है.
मेरा मतलब
तुमसे होगा
और उनका मतलब............
क्यों न तुम्हारा नाम
खुसबू रख दूं,
ताकि तुम्हें पुकार सकूं
बेहिचक
कहीं भी, कभी भी
सबके बीच में.
मैं कहूँगा
खुसबू आ रही है.
सब कहेंगे
हाँ, आ रही है.
मेरा मतलब
तुमसे होगा
और उनका मतलब............
Sunday, May 17, 2009
यूँ भी होता है
कई दिनों से कुछ नहीं लिख पाया इसलिए अपनी एक पुराणी लघुकथा पोस्ट कर रहा हूँ. कई साथी इसे पढ़ चुके होंगे, लेकिन यह उन्हें भी नया सा अनुभव देगी, क्योंकि यह रोज मर्रा की जिंदगी से जुडी हुयी है.
गोद मैं बच्चा लिए व हाथ मैं झोला लटकाए एक ग्रामीण महिला बस मैं चडी, सीट खाली नही देख एक दम से वह निराश हो गयी, फिर भी जैसा कि बस मैं चड़ने वाला हर यात्री सोचता है कि शायद किसी सीट पर अटकने कीजगह मिल जाए, वह भी पीछे की और चली, तभी उसकी नजर एक सीट पर पड़ी , उस पर बस एक युवक बेठा था, आंखों मैं संतोष की चमक आ गयी, पास जाने पर जब उस पर कोई कपडा या कुछ सामान नही दिखायी दिया तो उसने धम्म से शरीर को छोड़ दिया सीट पर,
अरे रे कहाँ बेठ रही हो, यहाँ सवारी आएगी,
आंखों मैं उभरी चमक घुप्प से गायब हो गयी , आगे और सीट देखने की हिम्मत उसमें नही रही और वह वहीं सीटों के बीच गैलरी मैं ही बेठ गयी, इसके बाद उस खालीसीट को देख कर कईं आंखों मैं चमक आती रही और बुझती रही,तभी एक युवती बस मैं चडी , अन्य लोगों को खड़ा देख उसने समझ लिया कि वह सीट खाली नही है, कोई आएगा, नीचे गया होगा, टिकेट या फिर कूछ लेने , और वह भी खड़ी हो गयी महिला के पास,
बेठ जाइये न, यहाँ कोई नही आएगा,
इस आवाज पर युवती ने मुड़कर देखा तो युवक उससे ही मुखातिब था,उसने आश्चर्य से पूछा कोई नही आएगा,
जी नही, युवक उसी मुस्कान के साथ बोला, इस पर युवती मुडी और नीचे बेठी उस बच्चे वाली महिला को वहां बेठा दिया,अब युवक का चेहरा देखने लायक था, वह युवती को खा जाने वाली नजरों से देख रहा था,
शिवराज गूजर
गोद मैं बच्चा लिए व हाथ मैं झोला लटकाए एक ग्रामीण महिला बस मैं चडी, सीट खाली नही देख एक दम से वह निराश हो गयी, फिर भी जैसा कि बस मैं चड़ने वाला हर यात्री सोचता है कि शायद किसी सीट पर अटकने कीजगह मिल जाए, वह भी पीछे की और चली, तभी उसकी नजर एक सीट पर पड़ी , उस पर बस एक युवक बेठा था, आंखों मैं संतोष की चमक आ गयी, पास जाने पर जब उस पर कोई कपडा या कुछ सामान नही दिखायी दिया तो उसने धम्म से शरीर को छोड़ दिया सीट पर,
अरे रे कहाँ बेठ रही हो, यहाँ सवारी आएगी,
आंखों मैं उभरी चमक घुप्प से गायब हो गयी , आगे और सीट देखने की हिम्मत उसमें नही रही और वह वहीं सीटों के बीच गैलरी मैं ही बेठ गयी, इसके बाद उस खालीसीट को देख कर कईं आंखों मैं चमक आती रही और बुझती रही,तभी एक युवती बस मैं चडी , अन्य लोगों को खड़ा देख उसने समझ लिया कि वह सीट खाली नही है, कोई आएगा, नीचे गया होगा, टिकेट या फिर कूछ लेने , और वह भी खड़ी हो गयी महिला के पास,
बेठ जाइये न, यहाँ कोई नही आएगा,
इस आवाज पर युवती ने मुड़कर देखा तो युवक उससे ही मुखातिब था,उसने आश्चर्य से पूछा कोई नही आएगा,
जी नही, युवक उसी मुस्कान के साथ बोला, इस पर युवती मुडी और नीचे बेठी उस बच्चे वाली महिला को वहां बेठा दिया,अब युवक का चेहरा देखने लायक था, वह युवती को खा जाने वाली नजरों से देख रहा था,
शिवराज गूजर
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