Sunday, May 22, 2011

यह लालच मरता क्यों नहीं?

छठी में एक कहानी पढ़ी थी। लालची कुत्ते की 'ग्रीडी डॉग'। पढ़ी अंग्रेजी में थी पर याद हिंदी में है। लालच के बहकावे में आकर कुत्ते ने अपनी परछाई से ही दूसरी रोटी पाने की कोशिश की। इस चक्कर में उसने अपने पास वाली रोटी भी गंवा दी थी। तब तब शायद लालच छोटा रहा होगा इसलिए कुत्ते के माध्यम से इसे समझाया गया था। अब स्थितियां उलट है। कुत्ते समझदार हो गए हैं, इंसान लालची। कहानी वही है, बस पात्र बदल गए हैं।
अब कहानी कुछ यूं होती है-एक महिला होती है। नाम इसलिए नहीं दिया है कि किसी से मेल खा गया तो वो लडऩे मेरे घर तक आ जाएंगी। वह महिला एक दिन बस स्टैंड पर खड़ी होती है। उनके पास एक अन्य महिला और उसकी कथित बेटी आती हैं। दोनों उसे बताती हैं कि उन्हें बस में एक सोने के मोतियों की माला मिली है। कुछ बदमाशों ने माला देख ली, इसलिए मेरे पीछे पड़े हैं। मैं इसे बेचती तो नहीं लेकिन क्या करूं, कोई चीज जान से तो बढ़कर नहीं होती ना! मैं किसी तरह बदमाशों से नजर बचाकर आई हूं! मैं इसे बेचना चाहती हूं। आप ले लीजिए। महिलाजी की लालच से जीभ लपलपा गई।  खट से अपने गहने उतार कर दे दिए। कम बताने पर खरीदारी के लिए लाए बीस हजार रुपए भी थमा दिए। बड़ी राजी (खुश) होते हुए घर पहुंची। घरवाळा भी खुशी से नाचने लगा। अपनी लुगाई की चतुराई पर ऐसा राजी हुआ कि घर वाळों के सामने उसकी ओर तिरछी नजर से भी नहीं देखने वाले ने लपक कर उसका माथा चूम लिया। ये और बात है कि बाद में शरमा के बाहर निकल गया। खुशी के पंखों पर सवार दोनों लोग-लुगाई सुनार के पास पहुंचे। सुनार ने जो बताया सुनकर दोनों के होश उड़ गए। सुनार ने उन्हें सपनों के संसार से उठाकर हकीकत की कठोर जमीन पर पटक दिया था। वो सोने के मोतियों की माला नकली थी। लुगाई की तारीफ कर रही जबान अब काफी कड़वी हो चली थी। लालच दोनों को देखकर मुस्करा रहा था। आज उसने इंसान को भी जीत लिया था। इस विजय ने उसे और ताकतवर बना दिया था। उसे इंसान की कमजोरी पकड़ में आ गई थी। वो समझ गया था कि इंसान जब दूसरे के साथ धोखाधड़ी होती है तो वह बहुत अफसोस करता है। उफनता भी है। उसकी नादानी पर फिकरे कसता है। उन्हीं परिस्थियों के बीच जब खुद पहुंचता है तो सारी समझदारी धरी रह जती है और वह भी लालच से मार खाकर रुदन करता लौटता है।
सवाल उठता है, यह मरता क्यों नहीं है? यह खुद नहीं मरता तो इसे मार क्यों नहीं देते? ऐसा नहीं है कि इंसान ने इससे लडऩे की कोशिश नहीं की। बहुत की, पर इसे बाली का सा (के जैसा) वरदान प्राप्त है। बाली को तो जानते हैं ना! रामायण में जिसका जिक्र है। उसके सामने जो भी मुकाबले के लिए खड़ा होता था उसका आधा बल उसमें आ जाता था। भगवान राम को भी उसे मारने के लिए छिपकर तीर चलाना पड़ा था। बाली का सा वरदानधारी यह लालच आए दिन शिकार कर-कर के पोषित होता आज रावण का सा अमर हो गया है। इसे मारने के लिए किसी राम को ही अवतार लेना पड़ेगा, पर यह कलयुग है। पता नहीं राम आएंगे कि नहीं। कल्कि का इंतजार है।

Thursday, February 3, 2011

तुम क्यों हार गई कविता...

जिंदगी से अभी तुम्हारी जंग शुरू भी नहीं हुई थी। अभी तो तुम अपने मां-बाप के कंधों पर खेल रही थी। अच्छी पढ़ाई कर रही थी। आने वाले दिनों में तुम एक ऐसे सफर पर जाने वाली थी जहां तुम्हें लोगों की जिंदगी बचानी थी। तुम्हारे पेशे में तो लोगों को बहादुर बनाया जाता है, ताकि वे मरते हुए लोगों को बचा सकें। उन्हें आशावादी बनाया जाता है ताकि वे मरते हुए आदमी के मन में भी जिंदगी के प्रति ललक पैदा कर सकें। फिर आधे सफर तुम कायर कैसे हो गई। एक चुन्नी का फंदा क्यों तुम्हें मुक्ति दाता लगा। अगर कहीं कोई टीस थी मन में तो तुम लड़ी क्यों नहीं। अपने भीतर की पूरी ताकत बटोरकर पछाड़ देना था उसे। बताओ न तुम लड़ी क्यों नहीं। तुम क्यों हार गई कविता...।
(नर्सिंग छात्रा के आत्महत्या करने की खबर पढ़ी तो मन में यही सवाल उभरा)

Saturday, January 29, 2011

काश! पलक जानती-यह तीली कितना जलाती है

शिवराज गूजर
एक आठ साल की बच्ची पलक के बस में जिंदा जल जाने की खबर ने अंदर तक हिला कर रख दिया। खबर यूं थी कि -बच्ची ने पिता द्वारा सिगरेट के पैकेट के साथ छोड़ी गई माचिस के साथ बाल-सुलभ छेडख़ानी की। तीली जली, मजा आया और वो खेलने लगी। खेल-खेल में कब कपड़ों में आग लगी पता नहीं चला। सोचकर देखिए, क्या वो पिता अपने आपको कभी माफ कर पाएगा जिसकी-सिगरेट पीने की आदत ने उससे प्यारी सी बेटी छीन ली। माचिस की तीली जब-जब उसके हाथ में आएगी दिल के किसी न किसी कोने में अपनी बेटी के लिए हूक जरूर उठेगी।
बच्चों के प्रति लापरवाही की यह अकेली घटना नहीं है। ऐसे वाकये आए दिन सुनने और पढऩे को मिलते रहते हैं। हम और आप ही में से किसी की छोटी सी गलती या तो पलक जैसे मासूम की जान ले लेती है या  फिर उसे जिंदगी भर का दर्द दे जाती है। काश! पलक यह जानती कि माचिस की तीली से निकली आग कितनी भयानक हो सकती है। अगर उसे पता होता तो वह शायद छूती भी नहीं।
...क्योंकि हम मनुष्य हैं
जहां तक मैं समझता हूं, मां-बाप होने का मतलब सिर्फ इतनाभर नहीं होता कि हमने उसे पैदा किया और बढ़ा कर दिया। अपने बच्चों का लालन-पालन तो जानवर भी जी लगाकर करते हैं। उसे जिंदगी जीने लायक बनाना और अच्छे - बुरे का ज्ञान कराना भी जन्म देने वालों के ही जिम्मे है, क्योंकि हम मनुष्य हैं। हम एक समाज में रहते हैं और समाज के अपने कुछ नियम कायदे हैं। अगर समाज में रहना है तो उन्हें फॉलो करना ही होगा।
अजनबियों की न सुनें, न उनका दिया कुछ खाएं
कुछ ही दिनों में ऐसी कुछ घटनाएं जयपुर में देखने को आईं, जिनमें बच्चों को उनके मां-बाप की मौत का भय दिखा कर ठग जेवर व नकदी उड़ा ले गए। उन्होंने यह बात घरवालों को भी नहीं बताई क्यों कि उन्हें डराया गया था कि ऐसा करने से संकट  जल्द आ सकता है। इन घटनाओं में बच्चों की क्या गलती बताएं-सबकी तरह वे भी अपने मां-बाप को बहुत प्यार करते हैं और उन्हें नहीं खोना चाहते थे। माता-पिता या अन्य परिजनों को चाहिए था कि वे बच्चों को बताते कि किसी भी अजनबी से रास्ते में बात नहीं करें। अगर कोई रुपए पैसे की मांग करे तो समझ जाना चाहिए कि यह कोई गलत आदमी है और वे उसकी बात मानने का दिखावा करते हुए वहां से चल दें और इसकी सूचना घर पर दें। यह भी समझाएं कि कोई अगर कुछ खाने को दें तो इनकार कर देें। ऐसा नहीं भी कर पाएं तो लेकर रख लें खाएं नहीं, बाद में उसे कहीं फेंक दें। ऐसा इसलिए करें-क्योंकि आजकल बच्चों के अपहरण में लिप्त गिरोह टॉफी या अन्य खाने की चीजों का लालच देकर भी बच्चों को बहलाते हैं।
विकृत मानसिकता वालों से रहें दूर
विकृत मानसिकता वाले लोगों के संबंध में भी बच्चों को जागरूक बनाएं। उन्हें ऐसे लोगों की हरकतों के बारे में समझाने के साथ ही इन परिस्थियों से निपटने को भी तैयार करें। ऐसे मामलों में बेटियों के प्रति खास सतर्क रहने की जरूरत है। इन दिनों जिस तरह की घटनाएं देखने में आ रही है, उस हिसाब से लड़कियों, खासकर छोटी उम्र की, को बाहर के लोगों से ज्यादा परिचितों से खतरा है। मेरा मतलब यह कतई नहीं है कि सभी परिचित ऐसे ही होते हैं, लेकिन यह तो मानोगे ना किसी के माथे पर शरीफ नहीं लिखा रहता। कहते हैं ना-लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।
जब घर में अकेले हों बच्चे
ऐसे दंपती जो नौकरीपेशा हैं, उनके लिए बच्चों के प्रति सजगता ज्यादा जरूरी है। उन्हें समझाएं कि जब वे अकेले हैं तो पीछे से घर पर आने वालों के लिए सीधा दरवाजा नहीं खोलें। पहले की होल से देखें-अगर अजनबी चेहरा है तो भीतर से ही मना कर दें। परिचित हो तो भी मम्मी-पापा के आने पर ही आने को कहें। सजगता के बावजूद भी यदि कुछ अनचाहा घट जाता है तो ऐसी परिस्थियों में घबराने की बजाय शांत रहें। पुलिस, दमकल और परिजनों जैसे महत्त्वपूर्ण नंबर लिखकर रखें ताकि ऐसे हालात में परेशानी नहीं हो। हां! पुलिस और दमकल जैसे नंबर देते समय बच्चों को इन विभागों की अहमियत समझाएं ताकि उनकी नासमझी से कोई परेशानी न हो।

Sunday, January 23, 2011

ऐसी भी क्या जल्दी है...

रेलवे फाटक बंद था। लोग अपने वाहन रोक कर खड़े थे, पर शायद उसे ज्यादा जल्दी थी। फाटक के बगल से उसने स्कूटी चढ़ा दी पटरी पर। अभी वह पटरी के बीचों-बीच थी कि ट्रेन आ गई। मौत उसकी आंखें के आगे नाचने लगी। इस वक्त जो उसने सबसे अच्छा काम किया वो यह था कि स्कूटी का मोह छोड़ पटरी के बाहर छलांग लगा दी। इधर वो गिरी और उधर स्कूटी पर से ट्रेन धड़ाधड़ करती निकल गई।
      यह एक अकली घटना नहीं है। यह तो बस ताजा उदाहरण है, ऐसे कितने ही प्रकरण रोज बासी हो जाते हैं। लोग खबर सुनते हैं, पढ़ते भी हैं और गुस्सा भी होते हैं पर क्षणिक। अगले चौराहे पर वही दुस्साहस खुद कर रहे होते हैं। पटरी के पास बसी कॉलोनियों-बस्तियों के लोग तो पटरी ऐसे पार करते हैं जैसे उनकी गली की सड़क हो। ट्रेन बिल्कुल करीब होती है और वे पटरी पर होते हैं। दो मिनट रुक कर ट्रेन को गुजर जाने देने से हालांकि उनका कोई बहुत बड़ा नुकसान मेरे हिसाब से नहीं होगा पर यह उनका रुटीन है।
     हाल कुछ ऐसे ही दिनभर लाल बत्ती पर भी नुमाया होते रहते हैं। स्टॉप लाइन तो बेचारी वाहन चालकों को बहुत पीछे से ताकती रहती है। बत्ती पीली नहीं होती उससे पहले तो सब ऐसे दौड़ पड़ते हैं जैसे कोई रेस चल रही हो। बत्ती कितने समय लाल रहेगी इसके लिए चौराहों पर टाइम मीटर लगाए हुए हैं। इनसे स्थिति ज्यादा बिगड़ रही है। लोगों का ध्यान बत्ती के बजाय इन पर होता है। जैसे ही मीटर 5-6 सैकंड पर पहुंचता है, लोगों की गाडिय़ां रफ्तार पकड़ चुकी होती हैं, जबकि दूसरी ओर से आने वाले अभी आधे चौराहे होते हैं।
       कई पैदल चलने वाले भी इनसे किसी मायने में कम नहीं है। जेब्रा क्रॉसिंग का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं है। जिस जगह चल रहे होते हैं वहीं से घुमा देते हैं अपनी बॉडी। न आगे देखना न पीछे। बस भागकर पार कर जाना चाहते हैं सड़क। उनकी यही जल्दी दुर्घटना की सबसे प्रिय परिस्थिति है।
मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि सबको यह जल्दी कहां जाने की है। अपने घर जाने की या भगवान के घर जाने की।

Sunday, January 16, 2011

सोचता हूँ भानूमति की तस्वीर ले ही आऊँ

'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' भानुमति का यह टोटका काफी पुराना है पर आज भी अचूक है। लोग धड़ल्ले से इसका उपयोग कर रहे हैं। उसने इसका पेटेंट करवा लिया होता तो आज उसकी पीडियों के वारे न्यारे होते. खैर गलती हो गयी उसका क्या रोना. आज रीमिक्स का दौर है. भाइयों ने इसका भी नया संस्करण निकल दिया. लेटेस्ट है जुगाड़. यह वर्जन जनता क्लास के लिए है. बालकनी वालों के लिए इसे हिंदी में 'गठबंधन' के नाम से और अंग्रेजी में 'एलायंस' के नाम से रिलीज किया गया है. जुगाड़ का सबसे अच्छा उदाहरण है किसान बुग्गा. एक कंपनी का डीजल इंजन लिया (वैसे बेचारे को डीजल कम, केरोसिन ही ज्यादा पीना पड़ता है) , ऊँट गाड़ी की बॉडी में जीप के पहिये लगाये और बन गया बुग्गा. ४०-५० हजार रुपये के इस आइटम से सवारियां भी ढो लो और सामान भी. क्षमता का कोई लेना -देना नहीं. मड गार्ड तक पर सवारियां बैठा लो, नो प्रॉब्लम. जीप और ट्रैक्टर वाले जलें तो जलें. जहाँ तक में समझाता हूँ, राजग के उदय का प्रेरणा स्त्रोत भी यही रहा होगा. मेरे दिमाग में एक फिल्म चल रही है. दो बार कुर्सी से बिछुड़ने के गम में अटल बिहारी वाजपेयी हाथ में माला लेकर फेरते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी के मोडल को आशा भरी नजरों से एक टक टेक जा रहे हैं. जैसे कह रहे हों, ' प्रिय मुझसे क्या खता हो गई, जो तुम दो बार मेरे पास आकर भी मेरी नहीं हो सकी. तभी एक अजीब से कानफोडू शोर ने उनका ध्यान भंग कर दिया. किसी साधनारत तपस्वी की तरह उन्होंने गुस्से में पलट कर देखा. क्या देखते हैं कि सामने वाले मकान के बाहर एक विचित्र वाहन खडा है. यह आवाज वाही कर रहा था. उससे सामान उतारा जा रहा था. शायद कोई नया किरायेदार आया था. ऐसा वाहन उन्होंने कभी नहीं देखा था. उसके बारे में जानने की उत्सुकता लिए वे तेजी से घर के बाहर आये. उन्होंने उसे घूमकर चारों ओर से देखा. जब कुछ समझ में नहीं आया तो ड्राइवर से पुछा, 'यह क्या है,'
ड्राईवर बोला, ' जुगाड़'
जुगाड़ बोले तो?
ड्राईवर ने उनके इस अज्ञानता भरे प्रश्न पर उन्हें ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा जैसे कह रहा हो, इतने तेज ज़माने में तुम्हें यह भी पता नहीं कि जुगाड़ क्या है? खैर उसने उदारता दिखाई और जुगाड़ का मतलब समझाया,
'जब आपके पास पर्याप्त साधन नहीं हो तो दूसरों से जो भी वह देने कि स्थिति में हो लेलो, और अपना काम निकल लो. यह टोटका भानुमति का है, जिसे इसको बनाने में काम में लिया गया है.'
फार्मूला समझ में आते ही वाजपेयीजी के माला फेरते हाथ जहाँ के तहां रुक गए. माला ठेली में छूट गई. उनके सोये ज्ञान चक्षुओं ने पलकें उघाड़ दीं. उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी अपनी होती नजर आने लगी. वे तेजी से ड्राईवर की ओर बड़े ओर इससे पहले की वह कुछ समझ पाता किसी सिरफिरे आसिक की तरह उसका माथा चूम लिया, और दौड़ लगा दी घर की तरफ. फ़ोन उठाया और फटाफट भानुमति की तस्वीर का आर्डर दे दिया. दो बार कुर्सी से दूर हो जाने का गम अब उनके चेहरे से कोसों दूर भाग खडा हुआ था. भाजपा के राजग नामक जुगाड़ में परिवर्तित होते ही कमल हो गया. भानुमति का फोर्मुला अपना काम कर गया था. वाजपेयी जी प्रधानमंत्री बन गए.
इस घटना ने कोंग्रेस में खलबली मचा दी. सबके मुह पर एक ही सवाल आ बैठा था, यह हुआ क्या और कैसे हो गया. मेडम ने राजग की इस सफलता का सूत्र तलाशने के लिए. जासूस छोड़ दिए. जासूसों ने भी तहलका किया और आखिर वह सूत्र पकड़ ही लिया यह 'जुगाड़' मेडम के समझ में नहीं आया तो उन्होंने इसे अंग्रेजी में अनुवाद कर बताने के लिए कहा. ट्रांसलेटर बड़ी मुस्किल से मेडम को इसका अर्थ समझा पाए. मेडम ने फोर्मुले पर काम किया. मौका लगते ही आजमाया और आज सत्ता में हैं. यह अलग बात है कि वह उस उस्ताद की तरह हैं जो ड्राईवर की नहीं खलासी की सीट पर बैठ कर अपने इशारों पर गाड़ी चलवाता है. अब भानूमति की तस्वीर मनमोहनजी के कमरे में भी है और मेडम के कमरे में भी. लालूजी के जिस दिन यह रामायण समझ में आ गई वह ले उडेंगें भानूमति को . बना देंगें उसको भी कहीं की मुख्यमंत्री राबडी देवी की तरह और प्रधानमंत्री की कुर्सी होगी उनकी. शायद वे फोर्मुले के बहुत करीब हैं, तभी तो कहते रहते हैं, ' हम एक दिन पीएम जरूर बनूँगा.' में भी सोच रहा हूँ कि भानूमति कि तस्वीर अपने कमरे में लगा ही लूं. शायद यह फोर्मुला काम कर जाये और में भी किसी पुरस्कार का जुगाड़ कर ही लूं.
शिवराज गूजर

Sunday, August 29, 2010

कोई नई बात करो!

हर रोज
काम पर जाते वक्त
करता है खुद से
एक वादा
आज लौट आऊंगा
घर जल्दी
कुछ वक्त बिताऊंगा
बच्चों के साथ
बीवी के साथ
कुछ दुख-कुछ सुख
की बातें करूंगा
मां-बाबूजी के साथ
पर
पलटता है जब
हो चुकी होती है रात
सो चुके होते हैं बच्चे
मां-बाबूजी के खर्राटे
बता देते हैं गहरी नींद में हैं
श्रीमतीजी जरूर मुस्कुराती
होती है मुखातिब
पर, आंखों में कुलबुला ही जाती है
शिकायत
स्वचालित मशीन से होंठ
फिर वही दोहरा देते हैं
कल जरूर वक्त पर आऊंगा
और हम....
छोड़ो, कोई नई बात करो
हाथ-मुंह धोलो
मैं खाना लगा देती हूं
कहती हुई वो चली जाती है
रसोई में खाना गर्म करने

शिवराज गूजर

Friday, August 6, 2010

इंटरव्यू

अजी सुनते हो
घर में घुसा ही था कि श्रीमती जी बोलीं
मुन्ना चलने लग गया है.
हाँ, फिर ?
फिर क्या ?
दाखिला नहीं कराना है स्कूल में
मैं चौंका,
यह नन्ही जान
खुली नहीं अभी ढंग से जबान
क्या पढेगा ?
अजी अभी पढाना किसको है.
यह तो रिहर्सल है, स्कूल जाने की
और फिर यहाँ यह रोता भी है
वहाँ मेडमें होंगी,
वो खिलाएँगी इसे
टोफियाँ देंगी.
हमें भी कुछ देर सुकून तो मिलेगा
मगर भागवान...
बात पूरी होने से पहले बोल पड़ी वो
मगर -वगर कुछ नहीं
मैं फार्म ले आई हूँ प्रवेश का
कल इंटरव्यू है अपना
तुम्हें भी चलना है.
प्रवेश बच्चे का, इंटरव्यू अपना ?
जी हाँ. यह प्रीव्यू है पेरेंट्स का
बच्चा तो ढंग से बोलता भी नहीं अभी
क्या पूछेंगे इससे
तो हमसे क्या पूछेंगे ?
यही कि, क्या हम समय दे पाएंगे
इसे घर पर
रोज दो चार घंटे पढाने का.

शिवराज गूजर

Saturday, July 31, 2010

सही-गलत

1
हां ! भई
अब क्यों आएगा तूं
गांव।
कौन है अब तेरा यहां।
तेरी लुगाई
और तेरे बच्चे
ले गया तू शहर
यह झिड़की सुननी पड़ती है
हर उस बेटे को
जो आ गया है शहर
रोजी-रोटी कमाने।
आया था जब वो शहर
अकेला था
सो भाग जाता था गांव
सप्ताह-महीन में।
अब यह नहीं हो पाता
इतनी जल्दी
क्योंकि-
अब बढ़ गई है जिम्मेदारियां
अनजान शहर में
किराए के मकान में
बच्चों को किसके भरोसे छोड़
हो आए हर सप्ताह गांव
और फिर गांव जाना भी तो
अब हो गया है महंगा
बच्चों की फीस और घर-खर्च
ही निगल जाते हैं महीने का वेतन
ऐसे में गांव पैसा भिजवाना
भी नहीं हो पाता मुमकिन
कई-कई महीने
2
उनका सोचना भी
नहीं है गलत
पेट भरने भर के लिए
शहर में परेशान होना
कहां की समझदारी है
घर पर खेती है
इतना तो
यहीं कमा लेगा
उतनी मेहनत करके
और फिर
पेट ही भरना है तो
वो तो जानवर भी भर लेते हैं।

शिवराज गूजर

Thursday, July 8, 2010

मंदरो-मंदरो मेह

मंदरो-मंदरो बरसे मेह
मन हरसावे मिनखां रो
जीव-जनावर राजी होग्या
रूप निखरग्यो रूंखां रो

करषां का खिलग्या मुखड़ा
देख मुळकता खेतां ने
बैठ मेड़ पै गावे हाळीड़ा
छोड़ माळ में बेलां ने

हरख्यो-हरख्यो दीखे कांकड़
ओढ्यां चादर हरियाळी
ढांढा छोड़ खेलरया ग्वाळ्या
छोड़ आपणी फरवाळी

शिवराज गूजर

Sunday, May 9, 2010

मेरी मम्मी

आज मदर्स डे है। यानी मां का दिन। मां, जिसने हमारे अस्तित्व में आने की प्रक्रिया की पहली अवस्था से लेकर आज के दिन तक हर पल हमारे लिए और सिर्फ हमारे लिए जीवन जिया है। परिवार के लोगों की हर जरूरत का ध्यान रखने में भी उसकी नजर कहीं न कहीं से हमारी ही ओर निहारती रही। तीन बच्चों का पिता होने के बावजूद आज भी मैं उसके लिए छोटा बच्चा ही हूं। गांव जाता हूं तो वे बिल्कुल उसी तरह मेरा ध्यान रखती हैं जैसे पैंतीस साल पहले, जब मैं बोलना भी नहीं जानता था, तब रखती थी। आज मैं खुद कमाने लग गया हूं, पर जब भी मैं शहर के लिए रवाना होता हूं तो वो पापा से यही कहती हैं, सोराज (गांव में सब मुझे सोराज ही कहते हैं) न पीसा दे अर आज्यो। शहर मैं कांई तोल क्यान परेशान रेतो होवेलो। योतो खे कोने। मैं मना करता रह जाता हूं और वो पापा से पैसे दिलवाकर ही मानती हैं। साथ ही कई बार तो अपनी बचत को भी वे धरे से मेरी जेब मेंं सरका देती हैं। उसी मां के लिए मैंने चंद लाइनें लिखी हैं। वो तो पढ़ नहीं पाएंगी क्योंकि वो कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन मैं अपनी भावनाएं आप लोगों से शेयर करना चाहता हूं।

मुझको सबसे प्यार है, मेरी मम्मी
जग में सबसे न्यारी है, मेरी मम्मी

आंखों में आंसू भर आए
हल्की सी जो चोट मुझे आ जाए
ठोकर मुझको लग जाए तो
देती पत्थर को भी गारी है, मरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

ऐसी भूल कभी मुझसे हो जाए
जो पापा को गुस्सा आए
मुझे बचाने की खातिर
खुद ओढ़े गलती सारी है, मेरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

गलती जो कोई मुझसे हो जाए
बड़े प्यार से वो समझाए
क्या गलत और क्या है सही
बात बताए सारी है, मेरी मम्मी
मुझको सबसे प्यारी है.....

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