Saturday, November 1, 2008

क्या इसी दिन के लिए लिया था गोद

क्या बताऊँ बीटा मैं तो अपने घर मैं ही बेगानी सी हो गयी, वो डोकरा (अपने पति की और इशारा करते हुए) भी बहुत दुखी है, पेरों से लाचार होने के कारन कुछ नही कर सकता, बस मुह से कहता रहता है, लेकिन सुने कोण, सब जगह ताले डालकर चाबी कमर मैं खोंस कर घूमती है महारानी, मेरे कोंसी तीन चार बेटियाँ है बस एक ही तो है लेकिन अभी से ही तरस गयी है मइके को, मैं इसे गोद नही लेती तो कम से कम एक ही दुःख होता की मेरे बेटा नही है, लेकिन अब तो मेरे सो दुःख हो गए हैं, क्या इसी दिन के लिए मैंने इसे गोद लिया था, यह कहते कहते काकी अपनी आंखों मैं आयी बाद नही रोक पाई और ओदनी के कोर से आंसू पोंछती हुयी, अपनी झुकी कमर को हाथ मैं पकड़ी लाठी पर संभालती हुई चलदी अपने घर.

4 comments:

manvinder bhimber said...

sunder abhiwaykti .....marmik bhi

नीरज गोस्वामी said...

मार्मिक रचना...लेकिन सत्य के एक दम करीब...क्यूँ हम बेटे की चाह में अपने पैरों पर कुल्हाडी मार लेते हैं?
नीरज

सोनाली सिंह said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है और हां, कमेंट बॉक्स में ये वर्ड वेरीफिकेशन का ऑप्शन हटाईए बेहतर रहेगा!

seema gupta said...

क्या इसी दिन के लिए मैंने इसे गोद लिया था, यह कहते कहते काकी अपनी आंखों मैं आयी बाद नही रोक पाई और ओदनी के कोर से आंसू पोंछती हुयी, अपनी झुकी कमर को हाथ मैं पकड़ी लाठी पर संभालती हुई चलदी अपने घर.
" very emotional expressions, very near to life.."

Regards

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