Wednesday, December 10, 2008

लिखे को कोन मानता है

बेचारी महिलाएं तो खड़ी हैं और ये कैसे फेलकर बेठे हैं,

मुडा तो देखा बगल वाली सीट पर बेठे सज्जन अपने साथी से मुखातिब थे, उन्होंने एक बार पूरी बस में नजर घुमाई] सायद अपनी बात का असर देख रहे थे, फिर बोले-

जबकि सीट के ऊपर साफ़ लिखा है -केवल महिलाओं के लिए,

उनकी बात ख़त्म होते-होते उनसे सहमत एक और सज्जन बोल पड़े-

ऐसा ही है भइया यह कलजुग है, लिखे को कौन मानता है, अब देखो न सबसे ज्यादा लघु शंका उस दीवार पर की गयी होती है जिस पर लिखा होता है, यहाँ पिसाब करना मना है,

एक और सज्जन बोल पड़े -

गुटखे पर साफ़ लिखा होता है -स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, फिर भी लोग खाते हैं ,

सबके साथ में भी उनकी बातों से सहमत होने लगा था, सोच रहा था सही कह रहे है ये लोग, हम लिखे पर कहाँ ध्यान देते हैं, तभी कशेले धुँए ने मेरी तंद्रा तोड़ दी, मैंने मुड़कर उस शोकीन को देखा जो बस में धुम्रपान कर रहा था, यह वही शख्स था जो
पूरे रास्ते लिखे हुए नियमों की जबरदस्त पैरवी कर रहा था. उसके सामने ही बस मैं लिखा था -धुम्रपान करना मना है.
शिवराज गूजर

9 comments:

सुनीता शानू said...

क्या बात हैं व्यंग्य तो बहुत अच्छा लिखते हैं आप...
लगता है आपको भी यह शौक हैं...जर यहाँ पढियेगा...शायद आपको अच्छा लगे...:)
कुछ व्यंग्य है आपकी बातों से मिलते जुलते..

http://mereerachana.blogspot.com/

रवीन्द्र प्रभात said...

यही व्यंग्य है ,सुंदर अभिव्यक्ति !

सुशील छौक्कर said...

इसी को तो कलयुग कहते हैं।

विधुल्लता said...

धुम्रपान करना मना है..likhe ko koun maanta hai...sahi

ghughutibasuti said...

हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक यूँ ही किसी लिखे हुए से थोड़े ही मानते हैं ।
घुघूती बासूती

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

haan, likhe ko kaun maanta hai

kripya ye word verification hatayiye, bahut taklif deta hai

डॉ .अनुराग said...

वाह जी !लिखे को कौन मानता है ...सही मूलमंत्र है

श्रुति अग्रवाल said...

बचपन में कभी कॉन्वेंट स्कूल की सिस्टर या सरस्वती मंदिर के आचार्य हम पर नियम लादने की कोशिश करते हम उन्हें तोड़ते...पढ़ाई में ठीक-ठाक होने के कारण न तो सजा मिली न फंटी की पिटाई। तब सोचती थी नियम बनाएँ ही जाते हैं तोड़ने के लिए लेकिन अब ....अब नियमों का टूटना दर्द देता है। खासकर नागरिक नियमों का टूटना...बचपन की नादानी और बड़े होने के बाद नियमों की अवहेलना में जमीन आसमान का अंतर है...यूरोप के कई देशों को जानने के बाद कह सकती हूँ नियम-कायदों का पालन करना उन्हें हमसे कहीं बेहतर आता है...और यहीं अंतर हमें अकसर शर्मिंदा करता है।

vandana gupta said...

bahut sahi kaha apne...hamare desh mein to vaise bhi agar galti se kuch likh diya to manne ka to sawal hi paida nhi hota .........aur sabse jyada cheekhne wale wo hi hote hain jo sabse pahle niyam todte hain

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