चांदपोल चलोगे,
इस शब्द ने जैसे कालू के कानो मैं सहद घोल दिया, वह अभी घर से रिक्शा लेकर बड़ी चोपड पहुँचा ही था, ऐसा कभी - कभार ही होता थाकि पहुँचते ही सवारी मिल जाए, कई बार तो घंटों इन्तेजार करना पड़ जाता था,
हाँ क्यों नही, बेठो, वो चहकते हुए बोला
कितना लोगे
पाँच रुपये
चांदपोल के पाँच रुपये
ज्यादा नही मांग रहा हूँ बाबूजी, बोहनी का वक्त है इसलिए पाँच ही मांग रहा हूँ, वरना तो छः रुपये से कम नही लेता,
रहने दे, सिखा मत, चार रूपये लेना है तो बोल, वरना अभी बस आने ही वाली है,
बस का नाम सुनते ही कालू कुछ दीला पड़ गया, फिर बोहनी करनी थी सो वह चार रुपये मैं सवारी को ले जाने के लिए तैयार हो गया,
सवारी के बैठते ही कालू ने चला दिए पेडल पर पैर ,
चांदपोल पहुंचकर सवारी जब उसे पाँच रुपये का नोट देने लगी तो उसने खुले नही होने की समस्या बताई
सवारी ने बुरा सा मुह बनाया, खुले नही है, मैं सब समझता हूँ, लेकिन मैं भी कम नही हूँ,
कहते हुए सवारी पास ही पान वाले कि दुकान पर चली गयी,
पान वाले ने कुछ लिए बगेर खुले देने से मन कर दिया, इस पर सवारी ने कहा, मैं कुछ खाता तो हूँ नही एक रुपये कुछ भी दे दे यार, वो रिक्शे वाले को किराया देना है,
पान वाले ने उसे एक गुटखा देते हुए खुले रुपये पकड़ा दिए,
सवारी ने गुटखा फाड़ कर मसाला मुह मैं डाला कालू को चार रुपये पकडाये और चल दी अपनी राह
कालू को ख़ुद पर ही हँसी आ गयी, एक रूपया जो उसका जायज हक़ थासवारी उसे देने के बजाय उससे एक ग़लत आदत की शुरुआत कर गयी,
उसने आसमान की और देखाऔर चला दिए पेडल पर पैर
शिवराज गूजर
4 comments:
कितना सही कह रहे हैं-क्या चला जाता यदि उस गरीब का जायज हक उसे दे देते और खुद भी गलत आदत के चक्कर में न पड़ते.
आपने कहानी के माध्यम से बिल्कुल सही बात कही है । दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है , जो गरीबों का हक मारकर व्यर्थ की चीजों पर पैसे बर्वाद करते हैं।
भगवान बचाए ऐसे लोगो से।
आप सभी का कहना सही है लेकिन कभी हमने सोचा कि कई बार हम भी यह सब कर जाते है जाने अनजाने में !
शिवराज जी अपनी कलम में स्याही ज्यादा रखा करे जिससे यह जो आपकी कलम है सदा चलती रहे कभी कभी यह चुप बैठती है शायद स्याही की कमी होती होगी !
वेसे साथ काम करने के कारन यह भी पता है कि आप बहुत व्यस्त रहते है लेकिन फिर भी इतना समय तो आप अपनी कलम को दे ही सकते है कि बहुत दिन तक वो खली न बैठे.
धन्यवाद के साथ
आप का ही साथी
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